सपना | Sapna

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Sapna  by यादवेन्द्र शर्मा ' चन्द्र ' - Yadvendra Sharma 'Chandra'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र्र बजाता रहा है? तव उप्तने सेठजी घो हिदायत दी कि इसबार बह उसे यह सब पूछ- कर पता लगाए। कहीं नीच जाति का हो गया तो कम से कम उसे तो वष्णव घम के प्रनुसार प्रापश्चित्त करना पडेगा ही। * झौर नरोत्तम एक भ्जीव ही उलमन में उलक गया । वह सोच रहा था कि वह घर से भाग झाया। लोग उसके वारे में दया-क्या श्रटकलवाजियां लगाएगे। उसवी मा रो रोकर बेहाल हो रही होगी । पर उतका वाप जरूर गुस्से में उदण कर बहता होगा कि मरन दो साले को भाग गया तो खुद व खुद वापस प्राएगा। मेहनत करके कमाना हसी-खल नहीं। जरा ठोषरें खाने दो झपन ग्राप प्रवल ठिकाने पर भा जाएगी। ह्रौर ये जरूर मेरी मां पर गर्म होते होंगे । कहते होंगे कि बना लिया वरिस्टर कलक्टर ! इंगरेजी पढाएगी गांव के किसान को साहव वनाएगी, बना लिया ? सब मा झा हृदय दुख से सडप उठेगा। वह सज्ञाहीन हीवर भनत्त पीड़ा में सुल गये लगगी। ममस्व के फूल की पखुडियों को लक्यकर सभो लोग वस-कस के नोचेंगे। बह दृश्य कितना मर्मान्तक होगा। भां-माँ-सा ! वह मन ही सन बोला । उसका गला भर झाया । उसकी प्राखों से प्रासू बह निकल। तव उसे प्रपनो मूल स्मरण हो ग्ाई कि वह झ्रावेश में एक निराधार भय के फोट में सब बघन तोडकर क्या भाग प्ाषा ? भ्ोह यह भय फितना भयकर होता है। मन में जागता है तव मन वाज़ पक्षी मी रफ़्तार से उठता है । इसने प्रपनी भास्तीन से भपनी गीली पाले पोछी भौर स्थिर होकर बैठ गया। समीप के एक मुस्ताकिर ने स्नहसिकत स्वर में पूछ लिया 'व्यों माई तुम्हारा भी कोई सम्यधी हिन्दू मुसलमातों के दंगे में मर गया है ? दगा | बहू काप उठा | उसवी चेतना के नेत्र खुल गए । पव उसे प्रपने भ्रापपर क्रोध गाने लगा । वह इस नाजुक समय में कहां जाएगा ? उसने घड़ी भारी ग्रतती की कि वह घर से माग भाया। इस संसार में वह सर्वया सम्बनरहित है। वह जहा भी जाएगा उसे धपनत्व मरी दृष्टि से देखने वाला कोई नहीं मिला वह भवेत्ता है, नितान्द प्रगेला।




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