जैन तत्त्व विद्या | Jain Tattv Vidya

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Jain Tattv Vidya by आचार्य तुलसी - Acharya Tulsi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हुए कर्म का फल भोगे बिना उससे छुटकारा नहीं मिलता। जिन स्थानों में प्राणी अपने किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं, वे स्थान दण्डक कहलाते हैं। फल भोगने के लिए जीव चार गति वाले संसार में परि- अ्रमण करते रहते हैं। उन चार गतियों को ही थोड़ा विस्तार देने से चौवीस दण्डक होते हैं। सात नरक भूमियों में रहने वाले जीवों का एक ही दण्डक होता है । रत्नप्रभा, शरकराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, महातमःप्रभा--ये सात पृथ्वियां हैं। इनमें नारक जीव निवास करते हैं। इन सातों पृथ्वियों में सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास का भयंकर दुःख है। वहां रहने वाले नारक जीव आपस में भी एक-दूसरे को दु:ख पहुंचाते रहते हैं। नारक जीवों के बाद भवनपति देवों के दण्डक हैं। उनके दण्डक दस हैं--दूसरे से ग्यारहवें तक | असु रकुमा र, नागकुमार, सुपर्ण कुमा र, विद्य त्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, वायुकुमार और स्तनितकुमार--ये दस प्रकार के भवनपति देव हैं। भवनपति देवों के आवास रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक भूमि है। यह पृथ्वी १ लाख ८० हजार योजन का पिंड है। इस पिंड का एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे का भाग छोड़कर मध्यवर्ती १ लाख ७८ हजार योजन का पिंड है। उसमें १३ प्रस्तट और १२ अन्तर हैं। उन वारह अन्तरों में दो खाली हैं। शेष दस अन्तरों में दस प्रकार के भवनपति देवों के आवास हैं। यहां एक प्रइन उठता है कि सात नारकी का दंण्डक एक ही माना गया है। उसी प्रकार यहां दस भवनपति देवों का दण्डक्र एक क्यों नहीं हुआ ? प्रश्न अस्वाभाविक नहीं है । इसके उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि भेद और अभेद का आधार विवतक्षा है। विस्तार को विवक्षा में अनेक भेद हो जाते हैं। संक्षेप को विवक्षा में एक ही भेद से काम हो जाता है । स्थावर जोवों के पांच दण्डक हैं--पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के दण्डक स्वतंत्र माने गए हैं। इस विवक्षा से स्थावर जोवों के पांच दण्डक हो जाते हैं । इनके बाद आठ दण्डक बतलाए गए हैं। इनमें चार दण्डक ति्य॑चों वर्ग १, बोल ८ / १६




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