सरहद पर सुलह | Sarahad Par Sulah

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Sarahad Par Sulah by हरदर्शन सहगल- Hardarshan Sahagal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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से होता है। जबान' आदमी को जबवान। जबान की कीमत होती है और शर्त की ? नहीं। शत की कीमत नहीं हांती। वैसे साचता हूँ। याद करता हूँ। बात लगभग दो साल पहल की है! हाँ दो साल तो गुजर ही चुके हाग॑। आफ्‌, बात-बात पर झगडा' 'पर साचता हूँ, यही झगडे ता पुर्ता सबूत थे हमारी दास्ती के, और ले-देकर यही दास्तां है हमारी दोस्ती की। यही माटे-माटे हाठावाला चन्द्रकिशोर “ज्यादातर यही मैदान-ए-जग का हीरो होता। जैसे हर किसी को ललकारता रहता। इसके बार-बार जलने-भुनने से हम सब खूब मजे लेते। तां आज किसकी बारी है? इशारे होते रहते। बस मासम की बात यूँ कर दी कि मौसम क॑ मुताबिक ही हमारा समय निश्चित हाता रहता था। उसी निश्चित समय पर हम सभी दास्त शाम का मिला करते थ। कपनी बाग की इस दूब से बढकर हमार लिए, दूसरी जगह नहीं थी। अपनी थोडी कुबडी चाल से उस दिन चन्द्रकिशार ललित की तरफ बढ़ गया--शर्त-शर्त | बगैनक चेहरे पर रखे मोटे-माटे हाठ फडफडा रहे थे। लगभग सभी मौजूद थे--में शौकत, प्रेमनाथ केदारदास। उलझने का कारण प्रीति थी--ललित की नई-नवेली रूपवती दुल्हन जिसके खयाला में चह रात-दिन खोया रहता था। हम लाग आपस म॑ फुसफुसात॑ थे--यह साला सिफ॑ अपने का 'दिखान' ही हमारे वीच आ पहुँचता है। वरना यारा का छाडकर 'उसी की ' गांदी म॑ पडा रहे। बेसे तो हर कोई हर एक से रस्सा-कशी का तैयार रहता था पर ललित से उलझना प्राय सबका अनायास हो उठता। कारण ललित बाकायदा अपना ही सुर निकालता था। वह सुर जब बाकिया से ज्यादा जुदा हाने लगता ता दूसरे 'आए आए' करते, झपटते, उलझत। ललित बस हल्फे-हल्के मुसकराता रहताः बदमाश। शरारती, भोला-घमडी अलग पहचान बनान॑ कां सनक पालनेबाला। कुल मिलाकर यही था ललित हमारी निगाहा मे। यह सब तभी से चला आ रहा था जब हम पढते थे और कुँआरे थे। हम सबका शौक ज्ञानार्जन था। दिक्कत तब होती जब यह ज्ञान का शॉक हर किस्म की हदे फाँदने लगता। हर कोई हर सब्जेक्ट्स मे ज्यादा से ज्यादा टांग अडाने में विश्वास रखने लगा था। अपने इसी नॉलेज के बलबूते पर एक दूसरे का पउाडने पर आमादा। हालाँकि यह बीमारी ललित मे कुछ कम थी फिर भी वह अदर ही हारते हुए [25 ]




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