पद्मपुराणम् भाग - 2 | Padmpuranam Bhag - 2

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Padmpuranam by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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षड़विशतितम पर ११ नकत॑ शक्त्या स्थितेनासाबुद्याने नससः पतन्‌ । विद्याभ्रतेन्दुगतिना दृदूशें सुखभाजनम्‌ ॥१३०॥ उड़॒पातः किमेष स्याद्‌ विद्युत्खण्डोइ्थवा च्युतः | वितक्यति समुस्पत्य दुदृशे पथुकं छुमस्‌ ॥१३१॥ ग्रहीत्वा च प्रमोदेन देव्याः पुष्पवतीभ्रुतेः । वरशस्याप्रसुधाया जद्जादेशें चकार सः ॥१३२॥ ऊचे बैतां द्वुतस्वान उत्तिष्ठोत्तिष्ठ सुन्दरि | कि शेषे बालक पश्य संग्रसूतासि शोमनमें ॥३३३॥ ततः कान्तकरस्पशसोख्यसंपत्प्रबोधिता । शय्यातः सहसोत्तस्थौ सा विधूर्णितकोचना ॥१३४॥ अभंक च दुर्दर्शातिसुन्दरं सुन्दरानना | तस्यास्तदंझुजाछेन निद्राशेषो निराकृतः ॥१३७॥ परं च विस्मयं प्राप्ता पम्नच्छ प्रियद्शना । कयाय॑ जनितो नाथ पुण्यवत्या खिया शिश्ञुः ॥१३६॥ सो5वोचइयिते जातस्तवायं प्रवरः सुतः । प्रतीहि संशय मा गास्त्वत्तो धन्‍या परा तु का ॥१३७॥ सावोचशल्िय वन्ध्यास्मि कुतो मे सुततभवः । प्रतारितास्मि दैवेन कि मे भूयः प्रतायते ॥१३८॥७ सो«्वोचद्देवि मा शड्कां कार्षीः कर्मेनियोगतः । प्रच्छन्‍नो5पि हि नारीणां जायते गर्भसंभवः ॥१३५॥ सावोचदस्तु नामैव॑ कुण्डले त्वतिचारुणी । ईदृशी मत्यछोके5स्मिन्‌ सुरत्रे मवतः कुतः ॥१४०॥ सो<5वोचद्देवि नानेन विचारेण प्रयोजनम्‌ । शशणु तथ्यं पतन्‍नेष गगनादाह्तों मया ॥।१४१॥ मयानुमोदि्तिस्तेड्यं सुतः सुकुलद्समवः । लक्षणानि चदुन्त्यस्य महापुरुषभूमिकम ॥१४२॥ श्रम कृत्वापि भूयांस भारसूदवा च गर्मजम्‌ । फल तनयकामो5न्न ततते जात॑ सुख प्रिये ॥१४३॥ 4००८-3३ बरी सीजन मीरा यमन न नीयत री 9० पहन की मीन नमन न नमन नल ३ 3 443७.35७०५७/५० न नान वतन १७/७५३०५७4१७९ा१० 5१७ ९०ट७३०५७७०८१९७०८११७८१५२०५०८१७९५०८१६००००/ जीवनी २२ पीना १० जननी भ>त+> ५५/1५/५००० /2%,५/%५/ 6५, /“९५../१९. ./6/७,/०५../५./;०0५//५../ ५५ /क. तदनन्तर चन्द्रगति विद्याधर रात्रिके समय अपने उद्यानमें स्थित था सो उसने आकाशसे पड़ते हुए सुखके पात्रस्वरूप उस बालकको देखा ॥१३०॥ क्या यह नक्षत्रपात हो रहा है? अथवा कोई बिजलीका टुकड़ा नीचे गिर रहा है ऐसा संशय कर वह चन्द्रगति विद्याधर ज्योही आकाशमे उड़ा त्योंही उसने उस शुभ बालकको देखा ॥१३१॥ देखते ही उसने बड़े हर्षसे उस बालकको बीचमे ही छे लिया और उत्तम शब्यापर शयन करनेवाली पृष्पवती रानीकी जाँघोके बीचमें रख दिया ॥१३२॥ यही नही, ऊँची आवाजसे वह रानीसे बोला भी कि है सुन्दरि ! उठो, क्यों सो रही हो ? देखो तुमने सुन्दर बालक उत्पन्न किया है ॥१३३॥ तदननतर पतिके हस्त- स्पशंसे उत्पन्न सुखरूपी सम्पत्तिसे जागृत हो रानी शय्यासे सहसा उठ खड़ी हुई और इधर-उधर नेत्र चलाने लगी ॥१३४॥ ज्योंही उस सुन्दरभुखीने अत्यन्त सुन्दर बालक देखा, त्योहीं उसकी किरणोंके समूहसे उसकी अवशिष्ट निद्रा दूर हो गयी ॥१३१५॥ उस सुन्दरीने परम आइ्चय्यँको प्राप्त होकर पूछा कि यह बालक किस पुष्यवती ख्लीने उत्पन्त किया है ? ॥१३६॥ इसके उत्तरमें चन्द्रगतिने कहा कि है प्रिये ! यह तुम्हारे ही पुत्र उत्पन्न हुआ है। विश्वास रखो, संशय मत करो, तुमसे बढ़कर और दूसरी धन्य स्ली कोन हो सकती है? ॥१२७॥ उसने कहा कि हे प्रिय ! मै तो वन्ध्या हूँ, मेरे पुत्र केसे हो सकता है ? में देवके द्वारा ही प्रतारित हँ--ठगी गयी हूँ अब आप ओर क्यों प्रतारित कर रहे है ? ॥१३८॥ उसने कहा कि हे देवि ! शंका मत करो, क्योकि कदाचितु कर्मयोगसे श्व्ियोंके प्रच्छन्त गर्भ भी तो होता है ॥१३५॥ रानीने कहा कि अच्छा ऐसा ही सही पर यह बताओ कि इसके कुण्डल लोकोत्तर क्‍यों है? मनुष्य लोकमें ऐसे उत्तम रत्न कहाँसे आये? ॥१४०॥ इसके उत्तरमें चन्द्रगतिने कहा कि हे देवि! इस विचारसे क्या प्रयोजन है ? जो सत्य बात है सो सुनो । यह बालक आकाइसे नीचे गिर रहा था सो बीचमे ही मैते प्राप्त किया है ॥१४१॥ में जिसकी अनुमोदत्ता कर रहा हूँ ऐसा यह तुम्हारा पुत्र उच्चकुलमें उत्पन्न हुआ है क्योंकि इसके लक्षण इसे महापुरुषसे उत्पन्न सूचित करते है ॥१४२॥ बहुत भारी श्रम कर तथा गर्भका १. प्रसुपतायां म.। २. चैता क, म. | ३. हुतस्वान म, । ४, शोभिनम्‌ म. । ५. भूप मं, । ६ त्वति- चारिणी सम, । ७, भया तु मोदित मं, 1




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