बीकानेर जैन लेख संग्रह | Bikaner Jain Lekh Sangrah
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm, धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
206.57 MB
कुल पष्ठ :
654
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
अगरचन्द्र नाहटा - Agarchandra Nahta
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भंवरलाल नाहटा - Bhanwar Lal Nahta
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ २ 1. शिढाढेखों के काठ निर्धारण में उसकी छिपी और उसमें निरिष्ट घटनायें व व्यक्तियाँ के नाम बड़े सहायक होते हैं । अद्यावधि प्राप्त समस्त शिछाढेखों में अजमेर स्यूजियममें सुरक्षित बीरात् ८४ वर्ष बाद संबतोल्लेखवाला जैनटेख सबसे प्राचीन है। ओमभाजी ने उसकी छिपि अशोक के शिछाढेखों से भी पुरानी मानी है इसके बाद सम्राट अशोक के धर्म विजय सम्बन्धी अभिडेख भारतके अनेक स्थानोंमें मिढे हैं । जैन लेखों में खारवेठ का उदयगिरि खंडगिरिवाछा शिलालेख बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है इसमें श्री आदिनाथ की एक जैन मूर्ति नंद राजा के छे जाने और उसे खारवेख द्वारा बापिस छाने का उल्ढेख भी पाया जाता है। इससे जेन मूत्तियों की प्राचीनताका पता चढता है । पर अभी तक प्राप्त जैन मूर्तियों में सबसे प्राचीन पटना म्यूजियम वाढी मस्तकविह्दीन जिन मूत्ति शायद सबसे प्राचीन है जो मौयंकाछ की है यद्यपि उसमें कोई ढेख नहीं है। पर उसकी चमक उसी समय कां है। इसके बाद सथुरा के जेन पुरातत्वका महत्व बहुत ही अधिक है उसमें कुशाणकाल के कुछ शिलालेख भी प्राप्त हुए हैं जिनमें सबसे पुराना प्रथम शताब्दी का है। मथुरा के जेन लेखों में जिन कुछ गण आदि के नाम है उनका उल्लेख कल्पसुत्र की स्थविराबली में प्राप्त होनेसे वे लेख श्वेताम्बर सम्प्रदायके सिद्ध हैं । कंकालछी टीले में प्राप्त अनेक मूत्तियों व शिछालेखो से मथुरा का कई शताब्दियों तक जेन घर्म का केन्द्र रहना सिद्ध दे । गुप्रकाठ भारत का स्वण युग है। उस समय साहित्य संस्कृति कछाका चरमोत्कषे हुआ । गुप्त सम्राट यद्यपि बेद्िकि धर्मी थे पर वे सब धर्मों का आदर करनेवाले थे उस समय की एक मूत्ति मध्यप्रदेश के उदय गिरि में गुप्त संबत् के उल्लेख वाली प्राप्त हुई हैं । वेसे उस समय धातु की जैन मूत्तियों का प्रचछन हो गया था और सातवीं शताब्दी व उसके कुछ पुंव्ती जेन धातु प्रतिमायें आंकोटा ( बड़ौदा) आदि से प्राप्त हुई हैं। राजस्थान के वसंतगढ़ में प्राप्त सुन्दर घातु मूत्तियां जो अभी पिंडवाड़े के जैन मंदिर में हैं राजस्थान की सबसे प्राचीन जैन प्रतिमाएँ हैं। आठवीं शताब्दी की इन प्रतिमाओ के छेख मुनि कल्याणविजयजी ने नागरी प्रचारिणी पत्रिका सें प्रकाशित किये थे | दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रचार श्रुतकेवछी आचार्य भद्रबाहू से हुआ माना जाता दे पर चर से सातवीं शताब्दी के पहले का कोई जैन लेख प्राप्त नहीं हुआ । दक्षिण के दिगम्बर जन ठंखो का संग्रह ढा० हीराढाछ जैन संपादित जैन शिलालेख संग्रह प्रथम भाग सन् १६५८ ई० में प्रकाशित हुआ । शवे० जेन शिलाढेखों की कुछ नकलों के पत्र यद्यपि जैन भण्डारों में प्राप्त है पर आधु- निक ढंग से शिछालेखों के संग्रहका काम गत पचास ब्षोमें हुआ। सन् १४०८ में पैरिसके डा च्श डक लि ए० गेरीयेनटने जन ढेखां सम्बन्धी 1२८0८7६८0176 एटा [आए नामक अ्रन्थ फ्रान्सीसी भाषामें प्रकाशित किया इसमें ई० पूर्व सन् २४२ से लेकर ईस्ची सन् १८८६ तक के ८४० लेखोंका इथक्करण किया गया जो कि सन् १६०७ तक प्रकाशित हुए थे हन्होंने उन लेखों का संक्षिप्रसार
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