प्रणय | Pranay

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Pranay  by देवनारायण द्विवेदी - Devnarayan Dwivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नल एणा सु शुक्रयदना रमा गुसकराकार लुप मेहर गयी। संबसक एकने श्माकों खोदका कहा, कप आवबेरे वीभों ने ? होल्य; मिसक ओर फिलित्‌ चनावदी ऋभके साथू समाने कहा“ युमलोग सीधस यानचीन को, नहीं नो में यहाँसे, भाग जाके गी। देखों भई, में हाथ भोइनी है, तुमताग गकेल्यथ न छेड़ी | हें थी हाथ भोडती हैं भाभी, यनसणा दो, भैया कब '्रावगे ? #ज मानोगी ? । बतलाओंगी रमाकी हृष्टि लज़ाफे भारत ऋुक गयी । उसने मस्यक हिलताकर च्छ्ा दिया,“-नहीं | /गास्ता यह बलन्लाओं कि. भेयागे। आतेपर मंफे क्‍या दोगी ५0 रमाकोी झाबसर मिक्ना। बालिकाकी झोत। हट फाफे मुख कराती हुई बोजी,- गुलाप, फुलकों तर कोमल कोर अत्यन्त सुन्दर एक वर तुस्कार हि।ए हू दबा ूँगी | वैसे ने ? रमाकी यह बात रुनका हांविद्राहितो कियोंदी थाजका संकु- , खित हो गयी । विफलित कमल्तितीपर सुपा पढ़े गया। पाठक समझ गये होंगे कि यह अविदाहिता किशोर, रमाक्ी नमेंदर साधा है | रमाका दिला बढ़ी बह कि कुछ क्राना की , चादवी थी कि, 'इततेमें वहाँ सास झा गयी । माँकों देखने ही सरलता बहाँसे १३




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