कोश व्याकरण | Kosh Vyakaran

Kosh Vyakaran by चतुर्वेदी द्वारकाप्रसाद शर्मा - Chaturvedi Dwarkaprasad Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धनय 7 (्‌ श३ . ) * घनखूयी किन भी यतख“/त/त यथ_त”तत्ततततऔत+_हन..--बब / ्त 000तह8ह80॥.ह.हह0ह0 झनय तत्‌० (पु८) घ्यस्तन, विपद, भाग्य, अशुभ, , दुर्नीति, पाप| [ बिययाड़, ऐंठा ऐडी | ध्यनरस तद्‌० (१०) विरस मिश्नों में अनवनाव, फूट, घनरसा दे० (वि०) बीमार, अनमना, रोगी।[कुरी ति | अनरोति तदू (स््री०) कुचाल, कुठ, अध्टरीति, ध्यनगज्ष तत्‌० (गु०) निरगंरू, श्रवाघ, श्रप्रतिहत, अतिवन्धकू रहित, ओटक, स्वेच्छक, य्रेशेक, अडबंड | अनध्यं तव॒० (यु०) धमूल्य, भरक्रेय, श्युत्कृष्ट [ पझनर्ज्ित तत्‌० '(गु०) अनुपा्जित, बिना परिश्रम- !.. हूब्ध, बिना कमाया हुआ | ध्यनर्थ तत्‌० (यु०) बुपा, निष्फल, श्रथद्दीन, ग्रनुचित । | - के तत्‌० (गु०) बपा, निष्फट, अ्रप्रयोजन, निरधंक ।--कारी (वि०) हानि करने घाला । - घन तत्‌० (गु०) अनुपयुक्त, अयेग्य, कुगत्र। ध्यनल्त तव्‌० (पु०) पूणंता रहित, श्रप्मि, आग, बसुभेद, भेछा, पित्त ।--पत्त पत्‌० (पु) पक्ति पिशेष, यह सी सर्वदा भादाश ही में उड़ा करता है, जुमीन पर कभी नहीं रहता, भपने अंडे को बह आकाश से गिरा देता है। थ्रंडा पृथ्वी पर पहुँचने से पइले द्वी फूट जाता है, और असमें से बच्या निकल्न भाता हैं, जो उसी समय से उड़ने 'छूग बाता है। यधा।+- ; दोड्ा , “झनलपत्त का चेहुआ, गिरेड धरणि भरराय। बहु भछीन पद्द छीन हैं, मियों ताखु के घाय ॥? “-विंचारमाढा । -+प्रमा तत्‌० (छी०) ज्योतिष्मती नामक छता विशेष, चरप्ति की शिखा, दीप्ति |-प्रिया तत॒० (स्री०) धप्मि-मार्या, स्वाद |. सिमी, उच्योगी। ध्यनलस तत्‌० (गु०) झाल्स्य-विद्वीन, उक्त, परि- ध्यनत्प तत्‌० (गु०) भधिक, घहुविस्तार । झनलेखत तदू० (घि०) अगोचर, श्दशय | घनवकाश तत्‌० (गु०) अवडाश रदित, निरवसतर । झनवद्य तव्‌० (गु०) अनिन्दित, सुम्दर, स्वच्छ, सान्य- मान, संध्रान्त ।--डूः तद० (६९) सुन्दर ध्मा, * _. सुडौल, शरीर |; [ भूषण विशेष । झनवट दे०-(ए०) घछ्ा, विह्ठीया, झ्विर्यों छे पर का घनवधान तव्‌० (ए) अ्मनेये!ण, चित्त की पुकाग्रता का थरमाव, भप्रणिधान, चित्त का अनावेश, अमनों- येगी, चनाविष्ट ।--ता तत्‌० ( छु० ) मनोये/ शून्यता, प्रमाद, झनवहितता, भसावधानता । झनवरत तत्‌० (ग़ु० ) निरन्तर, अजस््र, सर्वदा, अविरत, नित्य, लगातार, प्रतिदिन । आझनवसर तत्‌० ( पु० )कुसमय, अ्रसमय, अनवकाश । ध्यनवस्था तत्‌० ( खी० ) दुर्दशा, अवाधा, भ्रवस्‍्या- रहित, स्थिस्यभाष, दरिद्वता, अस्थिर, दुरवस्था, तर्क विशेष * नेयायिकों के मत से एक प्रकार का दोष, यधा--मजुष्य किससे उत्पन्न हुए, इस प्रश्न का उत्तर दिया गया कि मनु से, मन्रु कई से उत्पन्न हुए, ब्रह्मा से, ग्रह्मा कहाँ से उत्पन् हुए, विष्णु से, इसी प्रकार ज्यातार प्रश्न करते जाने से कुछ निर्णय नहीं हो सकता। निर्णय द्वोना तो दूर २६, रवों का बत्त देना ही कठिन हो जञायगा | इसीके अवस्था दोष कइते हैं। -+न तत्‌० ( धु०) घायु, भस्थायित्व, कृस्पा- यित्या, कुब्यवदार, भ्रवस्थिति-शून्य,, भस्यिर 1 +-स्थित तव्‌० (यु०) भस्यिर, चघुल !--स्थित तत्‌० (स्री. ) घासरद्तित, अवस्थानामाष, धस्थि- , सता ।-- स्थितचित्त तद्‌० (ए०) सन्माद, पागल, घाब्चक्य,श्रममिनिविष्ट ! शनशन तत्‌० (प०) थनाहार, उफप्यास, अमोमत घत तत्‌० (गु० ) उपवास फरते करते शरीर चोड़ देना । शझनशचर तस्‌० (गुण) अविनाशी, नित्य, समातन | घझनसखरी दे० (स्रो० ) पफीरसे।ई निखरी । ध्यनसिखा दे? (ग्रु०) शनपढ़ा, सूर्ख, श्रशान, अशिदछ्धित 1 झनखुन तदू० (गु० ) धानाकानी, भमानित) ने सुना हुआ 1-1 (स्री०) न सुमी हुई । झनलूया तद॒० (स्री-) असूया रदित, कलकु। पुक ऋषि कन्पा । सदर्धि अग्नि से यद म्याही गई पी, दच प्रजापति की कन्या थी भौर इसकी माता का नाम प्रसूति था | महाहवि का खिदास हत शजुस्तदा नाटक में सी पुर ऋनसूया का नाम झाता हैं,




User Reviews

  • rakesh jain

    at 2020-12-04 13:31:02
    Rated : 8 out of 10 stars.
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