आर्यभाट | Aryabhata

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आज की तरह छपाई की सुविधा नहीं थी, इसलिए पंडित लोग भी यही कोशिश करते थे कि पुस्तक छोटी-से-छोटी बने । पुस्तक छोटी हो, तो उसे कंठस्थ भी किया जा सकता था । पुस्तक यदि कविता में लिखी जाए, तो छोटी बन सकती है | कविता में लिखी गई पुस्तक को याद करने में भी आसानी होती है । इसलिए पुराने जमाने में पंडित अपनी पुस्तकों को छोटी-से-छोटी बनाने की कोशिश करते थे । आजकल कुछ उलटी बात है । आजकल के बहुत-से लेखक मोटे-मोटे पोथे लिखते हैं 4 परंतु आर्यभट के जमाने में मोटे-मोटे पो थे लिखना कोई बहुत अच्छी बात नहीं समझी जाती थी। कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक बातें भर देने से ही पंडित की तारीफ होती थी । उस जमाने का पंडित अपनी लिखी हुई चीज में एक मात्रा भी कम कर पाता तो उसे अपार आनंद होता था। कहा भी गया है कि पुराने जमाने में पंडितों को एक मात्रा कम कर पाने पर वैसा ही आनंद मिलता था जैसे कि पत्र पैदा होने पर होता है ! आर्यभट ने केवल लेईस साल की छोटी उम्र में ऐसा ही एक छोटा ग्रंथ लिखा-+ यह; अंथ॑न्डन्होंने




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