संस्कृत - सूक्तिसागर | Sanskrit - Suktisagar

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Sanskrit - Suktisagar by नारायण स्वामी - Narayan Swami

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ #नजटटजीजलजरसीउजटऔय जज ॑ख ये ससस जज औ जल स जज ज तीज सीी सीडी जज सऔ डेली जऔ जज सी स जज +न्‍र झसुरासरजुता पायात्खुधाब्वे!ः खुता ॥ १० ॥ द्रिद्वतो- न्मूलनकमंदक्ता प्रत्यक्षसिद्धेश्वरतानिदावम्‌। सस्पहद्धि- धात्नी फरुणानिधात्री धात्नीव सा सोख्यपदस्य दात्री ॥ ११॥ देवे5पिंतवरणसल्रजि वहुमाये वहाति कैटभीरू- पम्‌। जयति खुराखुरहसिता लज्जाजिह्ेक्षणा लक्ष्मीः ॥ १५॥ पद्मायाः स्तनहेमसझनि मणिश्रेणीसमाकपके किलशत्कश्नकसन्धिसन्निधिगते शोरे! करे तस्करे । सद्यो जाग्ृहि जाग्रह्दति वलयध्वानैभव गजता कामेन प्रतिवोधिताः प्रहरिका रोमाकछ्ुराः पान्तु वः ॥ १३ ॥ पयोधिसम्भूततया समन्ताहुग्धस्य विन्दूनिव गात्रल- झान। लावश्यसन्तानमिपेंण विष्वम्विभावयन्ती भव- ताहिमूत्ये॥ १४॥ पायात्पयोधिडुहितु+ कपोलामल- चन्द्रमाः। यत्र संक्रान्तविस्वेन हरिणा हरिणायितम्‌ ॥ १५ ॥ पीनभ्रोणि गरभीरनाभि निम्नतं भूम्ृद्शशोच्वस्तन पायाद्दः परिरव्धमव्घदुहितुः कान्तेन कान्‍्तं चषुः। संस्क्त-सूक्तिसागर; स्वावयासानुपघातनिदृतमनास्तत्कालमीलदशे. यस्में सो<च्युतनाभिपञ्मवसतिचंधाः श्षियं ध्यायति ॥ १६॥ मनाक्प्रपन्नेडपि कृपाकटाक्षे यस्याः कृतार्था सकला- ख्विराय। सा निर्मला55सेचनकस्वरूपा पायादपायात््‌ कमलासना माम्‌ ॥ १७ ॥ यादग्जानासि जास्वूनव्‌गि- ९रेशिखरे कान्तिरिन्दोः कलानामित्योत्सक्येन पत्यों स्मितमधुरमुखाम्भारुद भापमाणुंं। लीलादोलायमान- श्रुतिकमलमिलद्भुज्लसज्ञीवसाक्षी पायादम्भोधिजायाः कुसुमशरकलानाख्यनानदीनकारः ॥ १८॥ राजाधिय- जरुय सखापि नप्नो.उज्ुपेत्य यां आम्यति भिक्तमाणः। डपेतवान्‌ हन्त जनादनो<5पि शेतेस्तचिन्तं मम सा आये श्री: ॥ १६॥ लोकेपु लोकोत्तरतानिधाननिदान- भूता विभवाधिदेवी । मन्दाररूपा नमताश्ननानान्न कस्य वन्या विवुधस्थ लक्ष्मीः ॥ १०॥ सहोद्रत्वं प्रतिपय्य यस्याः स्फुरत्कलज्लो5पि मतो द्विजेशः। सम- भुजाएँ कोमल पत्ते हैं, नख फूल हैं, हाव-भाव लताका हिलना है, ऊँचे-ऊँचे रतन जिसके फल हैं और जो भक्तोंकी इच्छाओंके लिये हितकारिणी हैं ॥ १० ॥ दरिद्वताका नाश करनेमें चतुर, ऐश्व्य और सिद्धियोंको उत्पन्न करनेवाली, सम्पत्तियोंकी रचना करनेवाली तथा दयाकी खान लच्मीजी माताके समान सुख देनेवाली हैं ॥ ११॥ स्वयंवरमें जयमाला पहनाते समय बड़े मायावी विष्णु भगवानूने जब कैटभीका रूप धारण कर लिया उस समय देवताओं और देत्योंके हँस पड़नेसे लजाकर तिरछी चितवन कर लेनेवाली लचमीजीकी जय हो ॥ १२ ॥ मणि आदिसे घिरे हुए लक्ष्मीजीके स्तनरूपी सोनेके घरमें चोलीकी तनिकसी सन्धिसे विप्णुजीके धोरखूपी हाथके घुसनेपर तुरन्त ही हाथके कड्नांके जागो! जागो [!! इस प्रकार चिह्लाते-ही कामके द्वारा जगाएं गएु रोमाश्व रूपी रखवाले आपको रक्षा करे! ॥ १३ ॥ दूधके सझुद्धसे उत्पन्त होनेके कारण देहमें लगी दूधकी बूँदांको सुन्दरताके करणोंकी भाँति चारों ओर चमकाती हुईं लक्ष्मीजी कल्याण करनेवाली हों॥ १४ ॥ समुद्धकी पुत्री लक््मीजीका स्वच्छ घन्द्रमाके समान वह कपोल रक्षा करे जिसमें पढ़ती हुई विष्णुजीकी परछाई' हिरण-सी जान पढ़ती है ॥ १५॥ प्रियतमसे आलिड्गरन किय्रा हुआ वह पुष्ट नितम्ववाला, गहरी नाभिचाला तथा पंताकार ऊँचे स्तनोंवाला ससुद्र-पुत्री हूचमीजीका सुन्दर शरीर आपकी रक्षा करे, जिसका विष्णुजीकी नाभिसे निकले कमलसमें रहनेवाले श्रह्माने अपने निवास-स्थानके सकुशल बच जानेपर स्वस्थचित्त होकर नेत्र चन्द्र करके ध्यान किया था॥ १६ ॥ जिनकी तनिक-सी कृपामयी तिरछी चितवन पड़ते ही सब लोग सदाके लिये सन्त॒ष्ट ( निहाल ) हो जाते हैं और जिनके स्वच्छ स्वरूपको देखते रहनेपर भी मन नहीं भरता वे कमलपर बेठी हुई लचक््मीजी सदा मेरी रक्षा करे' ॥ १७ | लच्मीजीके सुमेरु पर्वत जैसे गोरे एवं ऊँचे स्तनोंसे ऊपर उनके मुखचन्द्रकी शोभाकों देखकर मुस्कराते हुए समुखकमलवाले लच्मी- पति विपष्णुजीने लच्मीजीसे पूछा--तुम जानती हो, सुमेरु पर्वंतकी चोटीके ऊपर खिले हुए चन्द्रमाकी कलाओंकी कैसी शोभा होती है? इसके उत्तरसें “नहीं? कहनेके लिये जो लच्मीजीने सिर हिलाया, उससे उनके कानोंके कमलॉपर मँंडराते मौरोंकी गुझ्लार सुनकर ऐसा जान पड़ा मानों कासदेवकी कला (रति ) रूपी नाटकके पूर्व भोरंकि गुआररूपी सद्जीतके साथ लक्ष्मीजीने सिर हिलाकर नान्‍दी (नाटकका प्रारम्भ) किया हो | लचंमीजीका यह नान्‍्दी कारये रक्षा करे.॥ १८ ॥ कुबेरके मित्र होते हुए भी शिवजी जिन्हें न पानेके कारण भीख माँगते फिरते दें भ्ौर खेद है कि जिन्हें पाकर विष्णु निश्चिन्त होकर सोते ही रहते हैं, ऐसी लच्मीजी मेरा कल्याण करे' ॥ १६॥ संसारमें अ्रत्यधिक ऐश्वर्यकों जन्म देनेवाली, ऐश्वथोकी स्वामिनी देवी तथा प्रणाम करनेवालोके लिये कल्पवृक्षके ससान लदचमी देवीकों कौन देवता भ्णाम नहीं करेगा ।॥।२०॥




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