साहित्यदर्पण | Sahity Darpan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २५ ) चाध्यावभासः। यत्त प्रयम्रोद्योते--यथा पदार्यद्वारेण” इत्यायुक्तप्र , तदुपायस्वमात्रात्‌ साम्यविवद्या ॥! ( घ्वन्यालोक : श्य उद्योत ) अर्थात्‌ वाच्य और व्यन्नरूप दा्टन्तिक की सिद्धि के लिए 'पदार्थ-वाक्याथ-न्याय! अथवा पदार्थ ओर वाक्‍्याथ॑ का दृष्टान्तर ठीक नहीं। वाच्य और व्यज्नयहप दार्शन्तिक के लिए तो 'धट-प्रदीप- न्याय? अथवा प्रदीप और घट का ही इश्टान्तः ठीक है । जैसे प्रदीप के द्वारा धद के साथ्षात्कार दोने पर प्रदीप का प्रकाश विद्यमान रद्दा करता है वेसे दी व्यक्ञथार्थ की प्रतीति धोने पर वाच्यार्थ का अवभास निवृत्त नहीं हुआ करता । किन्तु 'धट्प्रदौपन्याय? से 'विभावादिवग और रसप्रतीतिः का विश्लेषण विश्वनाथ कविराज की दृष्टि में एक खटकनेवाली वात दवै। बात ठीक भी है क्योंकि जैसे 'वट! पूर्वसिद्ध वस्तु दे वैसे 'रसः को पूर्वेसिद मानना रसध्वनिवाद को तिलाअलि दे देने के बरावर द्वी है। 'रसः? तो एकमात्र 'आस्वाद' अथवा 'प्रतीतिसार? दै, 'रस? कोई ऐसी वस्तु नहीं जो पहले से दो भौर जिसे इम न जानते हो तथा जो विभावादि द्वारा प्रकाशित हो उठे) 'विभा- वबादिवर्ग! और (रस! में दबिन्याय? दी छागू हो सकता है। दबिन्यायः से रस? को समझाने का अर्थ यद्द दे कि जैसे दूध का दी रुपान्तर-परिणाम दद्दी दे वैसे द्वी रत्यादिसुप स्थायीमाव का ही हपान्तर-परिणाम शज्मारादि 'रस! है । रत्यादि स्थायी भाव का यह (रस'रूप रुपान्तर-परिणाम दधिन्याय! से सरलता से समझाया तो जा सकता दे किन्तु श्स 'दविन्याय! को भास्वादमात्र सार “रस? तक नहीं खींचा जा सकता। वस्त॒ुतः विश्वनाथ कविरान ने इसीलिए कद्दा है कि (रस? एक अलौकिक और सद्ददयमात्र संवेध काव्या्थतत्व है । इसे एक “अखण्डरवप्रकाशानन्दचिन्मय, धेधान्तरसंब्पशंशन्य!, अद्यास्वादसद्दोदर?, ोकोत्तरचमत्कारप्राण! किंवा 'भात्मत्वरूप से अमिन्‍्न! आनन्दानुभव द्वी माना जा सकता दे । ( सादित्यदर्पण ३, २-३ ) (एस? की प्रतीति का देत 'सच्त्ोद्रेक' है । 'सत्तः का अमिप्राय 'रजस्‌ भौर तमस्‌ से भस्पृष्ट मन! का अभिप्राय है। रनसू और तमस्‌ से अस्पृष्ट मन भात्मरत हुआ करता है, वाह्ममय पदार्थों के प्रति विमुख रह्दा करता है। अलीकिक काव्याथ का परिश्यीछन करनेवाले सद्ददय सामानिक के हृदय में यद्द “अनन्योन्मुखताः--यद्द 'सच्वोद्रिक्तता” स्वभावतः उत्पन्न होती है । इस प्रकार यद्द स्पष्ट है कि विश्वनाथ कविराज ने यहाँ जिस रसानुभवप्रक्रिया का विश्लेषण किया है उसमें काथ्मीर के शवदशंन की विचारधारा की कोई झलक नद्दीं अपितु साख्य भौर अद्वेतवेदान्त के सिद्धान्तों का आवार झलकता दे । कवि-वर्णित विमावादि के “व्यज्ञयव्यक्षकमावःरूप संयोग से रत्यादिभावों का यह रुपान्तर- परिणाम 'चिदानन्दचमत्कारः-स्वरुप द्ोता है भौर इसीलिए इसे रस” कद्ठते हैं । यद्द रत्यांदि- भाव जो कि 'चिदानन्दचमत्काररूप से परिणत ोता है, काव्य-पुरुष अथवा नाथ्क-पुरुष का रत्यादिमाव नहीं, अपितु 'सताथारणीक्षतः र॒त्यादिमाव है -- ध्यापारोडस्ति विभावादेनाग्ना साधारणीक्षतिः । तत्परभावेण. थस्यासतन्‌ पराथोछिप्छचनादपः ॥ प्रमाता तदभेदेन स्वात्मानां प्रतिपश्चत्े । अत्पाहादिसमुद्रोघः साधारण्यामिमावत्तः ॥




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