लघु - सिद्धान्त - कौमुदी भैमीव्याख्या भाग - 6 | Laghu - Siddhant - Kaumudi Bhaimivyakhya Bhag - 6

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Laghu - Siddhant - Kaumudi Bhaimivyakhya Bhag - 6 by भीमसेन शास्त्री - Bhimsen Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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स्त्रीप्रत्ययप्र करणमस्‌ १७ यादुश (जैसा) शब्द पीछे हलन्तपुलिद्नप्रकरण मे त्यदादिषु दृशोडनालोचने कन्‌ च॑ (३४७) सूत्रद्वारा क्मूप्रत्ययान्त सिद्ध क्या जा चुका है। कृदन्त होने से कझृत्तद्धित- समासाश्च (११७) सूत्रद्वारा इस की प्रातिपदिक्सज्ञा हो जाती है । स्त्रीत्व की विवक्षा म टिड्टाणड्ट्यसज्दघ्मक्मानच्तयप्व्कठज्क्भु० (१२५१) सूत्रद्वारा डीपू प्रत्यय, अनुबन्ध- लोप तथा यस्पेति च (२३६) से भसज्ञक अक्ार का भी लोप कर विभक्ति लाने से “बादृशी' (जैसी) प्रयोग सिद्ध हो जाता है। यादूशी भावना यस्य सिद्धि्भवति तादूशी “-(पणञ्च० ५ ६८) । इसीप्रकार--तादृशी (वैसी), कीदृशी (कैसी), मादुशी (मुझ जैसी), त्वादृशी (तुस जैसी), सदृशी (वैसी) आदियों मे टीपू प्रत्यय समझना चाहिये । बवरपूप्रत्यय का उदाहरण यथा-- इणू गती (अदा० परस्म०) धातु से तच्छील आदि कर्त्ता अर्थ म इण्‌-मश-जि- सत्तिम्प कवरप्‌ (३२१६३) सूत्रद्वारा इृत्सज्ञषक क्यरप्‌ (वर) प्रत्यय कर हृस्वस्य पित्ति कृति तुंक्‌ (७७७) से तुक्‌ का आगम करने पर 'इत्वर' (गमनशील) यह क्ृदन्त प्रातिपदिक निप्पन्न होता है। अब इस से स्त्रीत्व को विवक्षा मे प्रकृत टिड्डाणक्द्वय” सज्दघ्नज्मानच्तयप्ठवठज्कज्क्वरप (१२५१) सूत्रद्वारा टीपू, अनुवन्धलोप एवं भ- सख्ज्ञक अकार का लोप कर विभक्विक्ाय करने से 'इत्वरी' (गमनशीला, पुश्चली कुलदा) प्रयोग सिद्ध हो जाता है! । इसीप्रकार--नश्वरी (नाशशीला), जित्वरी (जयशीला) सृत्वरी (प्रसरणशीला), गत्वरी (गमनशीला) आदि प्रयोगो मे डीपू समझना चाहिये । साहिस्‍यिक प्रयोग यथा-- शरदम्बुधरच्छाया गत्वर्यों यौवनश्रिय ॥ आपातरध्या विषया पर्यन्तपरितापिनः ॥ (क्रित० ११ १२) विशेष बक्तंध्य--यतमाना, पचमाना, एघमाना, वर्धमाना, वक्ष्यमाणा, वोक्ष्य- माणा, क्रियमाणा इत्यादियों में लेंटू या लूँट के स्थान पर होने वाले शानचु्‌ प्रत्यय मे १ 'क्वरप्‌” इस सानुबन्ध कथन के कारण वरच्प्रत्ययान्त प्रातिपदिक से स्थ्रीत्व मे डीपू नही होता, टाप्‌ ही होता है। स्येशभासविसक्सो वरच्‌ (३२ १७५) | स्था- वर , स्थावरा, ईश्वर ईश्वरा, भास्वर ॒भास्व॒रा, पेस्वर , पेस्वरा, विक्‍स्‍्वर , विक्‍स्वरा । तथा च भारवि -- वियस्तमद्धूलमहोषधिरीश्वराया (क्रात० ५३३)। कही कही 'ईश्वरा' के स्थान पर 'ईश्वरी' का भी प्रयोग देखा जाता है। यथा देवीमाहात्म्य मे-- प्रसोद विश्वेश्वरिं पाहि बिश्व त्वम्रोश्वरी देवी चराचरस्य । इन स्थानों में ईश्वर- शब्द औणादिक वरट्प्रत्ययान्त है अत टिक्त्वान्टीपू समयना चाहिये । अथवा इन स्थानों मे पुयोग में पुयोयादाब्यायाम्‌ (१२६१) द्वारा टीयू समसा जा सकता है अअिन्येम्योषपि दृश्यते (७६६) इति क्वनिषि वतो रच (४१ ७) इति डीबौ-- इत्यपरे] । ल० घ० (२)




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