अष्टावक्र गीता भाषा टीका सहित | Astavkra Gita Bhasha Tika Sahit
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
418
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रेरे अष्टाचक्-गीता भा० दी० स॒०
मूलम् |
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बच्न विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।
आनन्दपरमानन्दः स चोधस्त्व सु चर ॥१०॥
पदच्छेद' ।
यंत्र, विश्वम्, इदम्, भाति, कल्पितम्, रज्जुसपत्रतू, आननन्द-
परमानन्द:, सः, भोध', त्वम्, सुखम्, चर ॥|
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अन्बयः । शब्दार्थ | | अन्धयः । शब्दार्थ ।
अन्नूजिसमें 2
ऐ इद्मूल्यः परमानता ) झधानन्दपरमानन्द्
कल्प न्कािपत बट
लपतम्>कहि * बोध-स्वोधखूप
जिश्वमूरसंसार का
रज्जुसपंवत्ररण्णु में सपप के सदश स्वमूट्यू ६(पतपद लू )
भात्तिज्भाखता रहता हैं सुखमू-सुखपू्वक
सःल्वद्दी रजविचर आ
भावार्थ ।
अष्टावक्रजी कहते हैं कि है राजन् ! जिस अल्य-झात्मा में यह
/ जगत रज्जु में सप की तरद कह्पित ग्रवीत होता है, बद आत्मा
आनन्द-स्वरूप है | जैसे रज्जु के अज्ञान करके, मंद अंधकार में
,रज्जु ही सर्प रूप प्रतीत होती हैं, या रज्जु में सर्प प्रतीत होता हैं ।
वास्तव में न ती रज्जु सर्प-रूप है और न रुज्जु में सर्प है। और न
* रजजु में सर्प पूर्व था और न आगे होवेगा और न वर्तमान काल में
है, किन्तु रज्जु के अज्ञान करके और मन्द अन्धकार झादिं सहकारी
कारणों द्वारा पुरुष को शान्ति से रुज्जु में सर्प अतीत होता है, और
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