रामचरित - मानस | Ramcharit - Manas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हद कक १५ दाब्दार्थ :--विवेकु्विवेक, ज्ञान । सुलभनसहज में प्राप्य । घ्यार्पा :--सत्संग के अभाव में ज्ञान नहीं होता और बिना श्री रामचन्द्रजी की कृपा के सत्संग सहज में नहीं मिलता । सत्पंगति ही अ[ृनन्द . और कल्याण की मूल है । सत्संगति की सिद्धि (प्राप्ति) ही फछ है और सब - ' साधन तो फुल हैं । सठ सुधर्रहुं सतसंगति पाई । पारस परस कुधातु सुहाई ।। ः श दर बिधि बस सृजन कुसंगत परहीं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥।' द्वाब्दार्थ :-- सठ-्दुष्ट, सुर्ख । कुघातुन्लोह्ा । फनि मनि-सम्सपं की ; मणि के समान । 2 झ | *. _ध्यास्था :--सत्संगति को पाकर दुष्ट मनुष्य भी उसी प्रकार सुघर जाते हैं जसे पारस पत्थर के स्पर्श से कुधातु लोहा सोना हो जाता है । किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं (अर्थात्‌ जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विप को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुप दुष्टों के साथ में ' रहकर मी दूसरों को प्रकादा ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रमाव नहीं 7 पड़ता) । विद्येष :द--उपमा, उदाहरण एवं अनुप्रास अलंकार 1 घिधि हरि हर कवि कोबिद वानी । कहूत साधु महिमा सकुचानी ॥ सो मो सन फहि जात न फौसें । साक बनिक ममिं गुन जन जसें ॥ झब्दार्थ :--विधिन्स्रह्मा 1 हरिनविष्णु । हरनमहेश । कोविदलविद्वाद साक-वनिकम्त्साग-तरकारी बेचने वाला । - ब्यार्या :--जब साधु की महिमा करने में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कि पण्डित भौर सरस्वती भी दविचिकिचाती हैं (क्योंकि साधुओं की महिमा अनन्त, असीम और अपार है) तव मैं उसे कसे कह सकता हू? जैसे साग-तरकारी ' बेचने वाला मणियों के गुणों को नहीं कह सकता उसी प्रकार साधु की महिमा सी मुझ से नहीं कही जाती ।




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