विक्रमोर्वशीयम् | Vikramorvashiyam

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Vikramorvashiyam by प्रभुदयाल अग्निहोत्री - Prabhudayal Agnihotri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रास्ताविक कृविपरि वेय--कालिदास सस्कृत के मूर्धन्य कवि हैं और कवि समाज मे “कविकुल-गुठ” के नाम से विस्यात है। उतकी काव्यप्रतिमा पर मुस्ध होकर अनेक कवियों ने उत पर अपने श्रद्ध-सुमत चढायें हैं। उनके विपय में यह यूक्ति तो प्रसिंद्र हो है ।-- पुरा कवीता गणनाप्रसड़्ो कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदास,। अध्यापि तत्तुल्यकवेरभावादनामिका साथंवती बशूव॥ हाथ की पाँच उँगलियो के नाम हैं, कनिष्ठिका, अतामिका, मष्यसा, तजनी आर अद्भू पड । इनमे और नाम तो स्ायंक है किन्तु अनाभिका चाम कैसे पड गया यह पता नही चलता । इसका उत्तर ऊपर के इलोंक में किसी कवि ने दिया है। वह कहता है कि बहुत पहले लोगो ने कवियों की गंगता प्रारम्भ की | कनिष्ठिका (छोटी उंगली) से गिनता शुरू करने पर पहला नाम जया कॉलिंदास । उसके बाद उनको टक्कर का दूधरा मोम किसी को सूझा ही नही । दूसरी उँगछी बिता नाम की हो रह गयी ) इसछिये बह अनामिका कहुछाय्री । आज तक उतके समात दुप्तरा कवि ने होने से यह नाम साथंक है। काउस्‍्वरी और हुं चरित के रचयिता महाकवि वाण ने उसके विषय में कहा है -- निर्गतासु न वा कस्य कलिदासस्य सुक्तिषु । प्रीतिमंधुर साद्रामु मज्जरोष्विव एजायते ॥ मधुरस से रसीसी अगूर की मजरियों (गुज्छो) जैगी कालिदाब की सुक्तियो के निर्गंत होते पर कौव पवन नही हो जाता,? मधुर काव्य के बाद पुत्र जयदेव ने तो कालिदास को कविता-कामिनी का घिलास ही बतछा दिया है। उन्होने कहा है | यस्थाश्वोरश्चिकुरतिकर कर्णपूरो भणूरो, भारो हास , कविकुलगुर कालिदासो विलास. 1




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