पाइअ सद्द महण्णवो | Paia Sadd mahannavo

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Paia Sadd mahannavo by हरगोविन्ददास - Hargovind Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम संस्करण में लेखक का निवेदन कोई मो भाषा के ज्ञान के लिए उस मापा का व्याकरण प्रीर कोव प्रधान साचन है। प्राकृत भाषा के प्राचीन व्याकरण भशनेक हैं, बजनम चड का प्राकृतछक्षण वररुचि का प्राकृतप्रछाश, हेंसाचाये का सिद्धहेम (परम श्रव्याय), सार्कण्डेय का आकृतसवबेस्व प्र ख्क्ष्मीघर की पड़भाषाचन्द्रिका मुख्य हैं। झौर श्र्वाचीन प्राकृत व्याकरणों की सत्या प्रत्य होने पर भी उनमें जमंनी के सुप्रसिद्ध प्राकृत- विद्ान डॉ पिशलरू का प्राकृतव्याक्रण सर्वश्रेष्ठ है जो झतिविस्तुत भोर तुलनात्मक है। परन्तु प्राकृत-कोप के विपय में यह वात नहीं दै। आहत के प्राचीन कोपों में श्रयावि पर्वन्त केवल दो ही कोप उपलब्ध हुए हैं--परिंडत वनपाल-कुन पाइअरूच्छीनाममाला भौर हेमा चान- अणीत देशीनाममाला । इनमें पहला झतिसंजिप्त--दो सौ से भी कम प्यों में ही समाप्त श्ौर दुमरा केवल देश्य शब्दों का कोप है। इनके सिवा भन्‍्य कोई भी प्राकृत का कोप न होनेमे प्राकृत के हरएक भ्रम्यासी को अपने अभ्यास में बहुत अ्रसुविधा होती थी, खुद मुझे भी अपने प्राकृत-प्रन्यी के ग्रनुशीलन-काल में इस ग्रभाव छा कट प्रनुमव हुआ करता था । इससे शभ्राज से करीव पनरह साल पहले पृज्यपाद, प्रात - स्मरणीय, गरुरुवर्य शात्ष-विशारद जैताचाय शत्रो १००८ श्री बिजयवर्मसूरी श्वरजी महाराज की प्रेरणा से प्राकृत का एक उपयुक्त कोप बनाने का मैंने विचार किया था । इसी भरते मे श्री राजेन्द्र सरिज्ी का आभेधानराजेन्द्र नामक कोप का प्रथम भाग प्रकाशित हुप्रा और भी दो वे हुए इसका अन्तिम भाग भी बाहर हो गया है। वडो बडो ज्ञात जिल्दों में यह कोष समाप्त हुआ है। इस सपुर्णा कोष का मुल्य २६०) ठुपये हैं जो परिश्रम और ग्रन्य-परिमाण में अधिक नहीं कहे जा सकते । यय्पि इस कोप को विस्तृत झ्रालोचना करने की न तो यहां जगह है, न आवश्यकता ही, तवापि यह कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि इसकी तम्यारी में इसके कर्ता और उसके सहकारियों को सचमुच घोर परिश्रम करना पडा है झौर प्रकाशन में जैन श्वेताम्वर संघ को भारी घन-व्यय । परन्तु खेद के साथ कहना पडता है कि इसमे कर्ता को सफलता की अपेज्ञा निप्फलता हो अधिक मिलो है प्रौर प्रकाशक के घनका श्रपव्यय ही विशेष हुप्मा है। सफलता न मिलने का कारण भी स्पष्ट है। इस ग्रन्व को थोडे गौर से देखते पर यह सहज ही मालूम होता है कि इसके कर्ता को न तो प्राकृत भापाझ्रो का पर्याप्त ज्ञान था और न प्राकृत शब्द-क्ोप के नि्मरण को उत्तनी प्रवल इच्छा, जितनी जैन दर्शन-शाक्ष झौर तकँ-शाद्र के विपय में अपने पाशिडत्यप्रख्यापन की धुत । इसी धुन ने अपने परिश्रम को योग्य दिशा में ले जानेवालो विवेक-बुद्धि का भी हा कर दिया है। यही कारण है कि इस कोप का निर्माण, केवल पचदत्तर से भी कम प्राकृत जैन पुस्तकों के हो, जिनमें श्रघ॑मागधी के दर्शंनविपयक ग्रधो की चहुलता है, आधार पर किया गया हें भीर प्राकृत की ही इतर मुख्य शालामों के तवा विभिन्न विषयो के भ्रतेक जैन तथा जैनेनर ग्रत्घो में एक का भी उपयोग नहीं किया गया है । इससे यह कोष व्यापक न होकर प्राकृत भाषा का एकदेशीय कोप हुआ है। इप्तके सिवा प्राकृत तथा सल्कृत पग्रन्यों के विस्तृत प्रश्ों को भौर कही-कहीं तो छोटे-वडे सपू्ं ग्रन्य को ही अवतरण कै रूप में उद्घृत करने के कारण पृष्ठ-सल्या में वहुत वडा होने पर भी आब्द-सख्या में ऊन ही नहीं, वल्कि आवार-म्ृत ग्रथों में आए हुए कई उपयुक्त शब्दों को छोड देने से श्रीर विशेषार्थ-हीोन प्रतिदी॑ सामासिक शब्दों की भरती से वास्तविक शब्द-सख्या में यह कोप अतिन्युन भी है। इतना ही नहीं, इस कीप में झादशं पुस्तकों की, भ्रप्तावधानी की भीर प्रेंस की तो भ्रसंख्य प्रशुद्धियाँ हैं हो, प्राकृत मापा के श्रज्ञान से सवन्ध रखनेवाली भूलों को भी कमी नहीं है। भौर सबसे वढ़कर दोष इस कोप में यह है कि वाचस्पत्य, अनेकान्वज्ञयकत्ताजा, अष्टऊ, रत्नाकरावतारिका श्रादि केवल संस्कृत के भौर जैन इतिहास जैसे १ जैसे चेद॒या शब्द की व्याज्या में प्रतिमाशतक नामक सठीक संस्कृत ग्रन्य को श्रादि से लेकर अन्त तक उद्घृत किया गया है । इस ग्रथ की छोक-सख्या करीब पाँच हजार है । २. भ्रक्त > भर्क झ्ादि | जज ३ जैसे श्रइ-तिवल-रोस, झइ-दुफख-घम्म, प्रइ-तिव्व-कम्म-विगम, भकुसल-जोग-णिरोह- प्ाचयते(? )उर-पर-घर-प्पवेस, भ्रजिम्म(?)- कंत-णयणा, भ्रजस सय-विसप्पमाण-हियय, प्रजहएणुको(7)स-पएसिय श्रादि। इन शब्दों का इनके श्रवयवों को श्रपेक्षा कुछ भी विशेष श्र नहीं है।




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