श्री सकडालपूत्र श्रावक की कथा | Shri Shakdal Putra Shravak Ki Katha

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Shri Shakdal Putra Shravak Ki Katha by जवाहिरलाल जी महाराज - Jawahirlal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १६) मुखमेदल, दशों दिशाओं को आलोकित करता था । पैरों में पदनी हुई रतन जड़ित घुघर माल की मधुर करार चारों तरफ ऋकारित शे रहीयी | मित्रों! आपने भी कभी देबता के दशन हिये है ? 1 नहीं । 7 भाप लोगों को कुम्दार की ४०० दुकाने देख कर विचार आता होगा कि इसके यहां हमेसा कितनी मिट्टी मोदी जाती होगी आननि का आरम्भ कितना होता दोगा हाय हाय यह महय पापी हैं! भाएयों आपको उपर की हृष्ठ से यह कुम्हार भले ही आरम्भी समारम्भी [दिखे पर चारित्र का पता ऊपर से नहीं लगता। चारित्र फा असली पता आंतरिक ज्ञान से फरना चाहिये ऊपर की क्रिया को देखकर महा आरभी महापापी ठहरा देना बिल कुल पूखता हैं। यदि पह ब्रास्तव में मद्ापापी या महाश्रारम्भी होता तो देवता किस प्रफार उसके यहां आसकता था ? क्या देव में कप भ्रक्त थी १ नहीं। देवता पहाज़ानी हुआ फरते हैं। उनकी बुद्धि मनुष्यों से शेष विकसित रहा ऋरतो दे। सकडाल के झन्द्र देवता ने विशेष प्रफार फी उदारता, पुएय भावना देखी तभी तो झयाया | जिस प्रकार अग्नि के साथ घुआरदना अवश्यम्भावी है उसी भ्रकार शहस्थ की तमाप ससारिक्त क्रियाओं में पाप झारभ जरुर है | क्रिया पर हस्त से कराई जावे या स्पदस्त से . पाप का भागी तो अवश्य दोना ही पड़ता है छुम्दार इस नियम से झुक नहीं था पर अल्प कई कारणों से - अर्थाद- भात्मा की विशारू




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