यारी साहब की रत्नावली | Yari Sahab Ki Ratnavali
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
0.74 MB
कुल पष्ठ :
18
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)साखी हक
( ७ )
आब के बीच निमक जैसे, सब लोहै दि मिलि जावे ।
यह मेद की बात अपर दे रे, यह बात मेरे नहिं मन भावे ॥ .
गवास' होड़ के अंदर धर, आादर सवार के जोति लव ।
पारी मुद्दा हासिल हुआ, आगे को चलना कया भावे ॥
॥ खाखी ॥
जोतिं सरूपी आतमा, घट घट रहो समाय ।
परम तत्त मन भावनों, नेक न इत उतत जाय ॥१॥
रूप रेख बरनोँ कहा, काटि सूर परगास ।
झगम भ्रगाचर रूप है, [का] पावे हरि को दास ॥२॥
नैनन आगे देखिये, तेज पूंज जगदीस ।
बाहर भीतर रमि रहो, सा धरि राखो सीस ॥हे॥
वाजत अनहद बॉसुरी, तिरवेनी के तीर ।
राग ढतीसा होइ रहे, गरजत गगन गंभीर ॥४॥
शाठ पहर निरखत रहो, सन्मुख सदा हजूर ।
कह यारी घरहीं पिले, काहे जाते दूर ॥४॥
पेला फूलां गगन में, बंकनाल गहिं मूल ।
नहिं उपजे नहिं बीनसे, सदा फूल के फूल ॥९॥
दिन दिसा मोर नइहरो, उत्तर पंथ ससुराल ।
मानसरावर ताल है, [तहूँ] कार्मिनि करत सिंगार 0७)
भातम नारि सुद्दागिनी, सं दर आपु सैँंवरि ।
पिय मिले के! उठि चजी, चौसुख दियना बारि 0८0
घरति अकास के चाहरे, यारी पिय दीदार ।
सेत छत्र तहूँ जगमगे, सेत फरटिक उजियार ॥६॥
तारनहार समधे हे, अवर न दूजा केय ।.
कह यारी सततगरु मिले, (तिए] अयल अरु अम्मर दोय ॥१०॥।
॥ दि
(६) ग्ीरास >याता लगाने वाला ।
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