यारी साहब की रत्नावली | Yari Sahab Ki Ratnavali

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Yari Sahab Ki Ratnavali by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साखी हक ( ७ ) आब के बीच निमक जैसे, सब लोहै दि मिलि जावे । यह मेद की बात अपर दे रे, यह बात मेरे नहिं मन भावे ॥ . गवास' होड़ के अंदर धर, आादर सवार के जोति लव । पारी मुद्दा हासिल हुआ, आगे को चलना कया भावे ॥ ॥ खाखी ॥ जोतिं सरूपी आतमा, घट घट रहो समाय । परम तत्त मन भावनों, नेक न इत उतत जाय ॥१॥ रूप रेख बरनोँ कहा, काटि सूर परगास । झगम भ्रगाचर रूप है, [का] पावे हरि को दास ॥२॥ नैनन आगे देखिये, तेज पूंज जगदीस । बाहर भीतर रमि रहो, सा धरि राखो सीस ॥हे॥ वाजत अनहद बॉसुरी, तिरवेनी के तीर । राग ढतीसा होइ रहे, गरजत गगन गंभीर ॥४॥ शाठ पहर निरखत रहो, सन्मुख सदा हजूर । कह यारी घरहीं पिले, काहे जाते दूर ॥४॥ पेला फूलां गगन में, बंकनाल गहिं मूल । नहिं उपजे नहिं बीनसे, सदा फूल के फूल ॥९॥ दिन दिसा मोर नइहरो, उत्तर पंथ ससुराल । मानसरावर ताल है, [तहूँ] कार्मिनि करत सिंगार 0७) भातम नारि सुद्दागिनी, सं दर आपु सैँंवरि । पिय मिले के! उठि चजी, चौसुख दियना बारि 0८0 घरति अकास के चाहरे, यारी पिय दीदार । सेत छत्र तहूँ जगमगे, सेत फरटिक उजियार ॥६॥ तारनहार समधे हे, अवर न दूजा केय ।. कह यारी सततगरु मिले, (तिए] अयल अरु अम्मर दोय ॥१०॥। ॥ दि (६) ग्ीरास >याता लगाने वाला ।




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