श्री वर्द्धमान चरित्र | Shri Varddhman charitra

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उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम - Upadhyay Jainmuni Aatmaram

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ज्ञानचन्द्र - Gyanchandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्छ अकुत्सिते करमरि यः ग्रवर्तते । निम्वत्तरागस गृह तपोगनस ॥ _अथे-पिपयासक्त चित्तवालोंको बन में भी लोभगोहादि पाप बृत्तिया लगती हैं। चप्षु कणोदि इन्द्रियोका सममरूप तप नियम तथा धमोनुष्ठान घरमें भी हो सक्ता है। जो पुरुप निन्दारहित पुण्यकर्मकी करता है ओर जो विषयवासनादिसे विरक्त है ऐसे धर्मात्मा धुरुपफे लिये भ्रृह ही तपोवन है. अर्थात्‌ उसके लिये गह ही धर्मानुप्ठानादि करनेका स्थान है इस कारण, हे भाई ! मेरे ऊपर ऋपा करके बीतराग भावसे ग्रहस्थाअ्ममर्मे ही जीवन व्यतीत करो अर्थात्‌ भिक्छु बनने वा अटवीमें गमन करनेके सकरप त्याग दो और मेरी इस दुःख-- भरी प्रार्थनाकों खीकार करो, जय भगवानने स्वेथाही आर्थना अखीकार की तय नदिवद्धनने दो वरषेके लिये अत्यंत आग्रह किया । यह प्रार्थना सुनकर भगवानले देशकाल देसकर अथवा ज्येप्त आताकी साज्ञाको उच्च समककर दो वर्षपर्यन्त और भी ससारमें रहना खीफार किया, किन्तु निजेल तप कर्म या इन्द्रियनिग्रह, सदाचार घमे और आत्मा दमनादियें पूबेसे भी अधिक अबृत्त हुए । इस प्रकार सुसपूवेक समय व्यतीत करते हुये जय आपकी एक चर्ष अतिकान्त हो गया तय आपके मनमें अयर्पीयदान # यह एक स्वामानिक नियम दै-दि जब तीर्थफर भगवानके दीक्षित होनमें एक वप रह जाता है तन बह एक वष तक दान ररते हैं ।




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