वीर्य नाश ही म्रत्यु है | virynash hi Mratyu hai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका प्रथम संस्करण .से “स्ूक॑ करोति वाचाल॑ पंगु छंघयते गिरिम्‌। यत्क्पा तमह बन्दे परमानत्दू माधवमू ॥ १1 इस छोटे से प्रन्थ में सर्वत्र स्त्राघुभव-प्रकाश और साथ ही साथ शाख्र व पराजुमव-प्रकाश भी किया है । इसमें अनुभव की वातें कूट कूट कर भरी होने के कारण यह प्रन्थ और भी महल का हुआ है । इसका मुख्य विपय “09887 18 नि 80085608781]7 उं5 08800” यानी “ग्रह्मचर्यद्ी जीवन है श्र वीर्यनाश दी सुत्यु है” यह है। जब शर्रीर में से चैतन्य निकल जाता है तव उसके साथ दी साथ रक्त और वी; ये दो जीवन-प्रद्‌ तत्र भी सत्य के वाद शीघ्र ही यायव दो जाते हैं; और उनका पानी वन जाता ह । जिस मनुष्य को हैज़ा' होता है उसके रक्त का पानी बनने लग जाता है श्र वहीं पानी फिर कै और दस्त के द्वारा बाहर निकलने लगता है। कोई अंग काटने पर भी उसके शरीर से खून नहीं निकलता; पश्चात्‌ चदद बहुत जल्द स्यु को प्राप्त होता है। अतः यह सिद्ध है. कि “जब तक मनुष्य के शरीर में रक्त व वीथ्ये ये दो चीजें मौजूद हैं, तसी तक बद्द जीवित रह सकता है झौर इनका नाश दोने से उसका भी तत्काढ नाश हो जाता है। जितना मदुष्य वीथ्पे का नाश करता है उतना दी वद रक-विद्दीन वन कर बत्यु की झोर चयावर छुकता जाता है । जितना अधिक मनुष्य प्रीय को घारण करता है उतना ही अधिक बह सजीव बनता जाता




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