कुवलयमाला भाग 1 | Kuvalayamala Bhag 1

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Kuvalayamala Bhag 1 by आचार्य जिनविजय मुनि - Achary Jinvijay Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है कुबलयमाढा बिद्यान्‌ खर्गवासी डॉ० पाण्डुरंग गुणे, डॉ० एन. जी. सरदेसाई और डॉ-० एस. के. बेल्वठकर आदिके आमंत्रणसे मैं घूना गया था । मेरा उद्देश इन्स्टिव्यूटकी स्थापनामिं जैन समाजसे कुछ आर्थिक सददायता दिलानेके साथ, खयं मेरा आन्तरिक म्रठोभन, प्रनाके उस महान्‌ मन्थसंप्रहको भी देखनेका था जिसमें जैन साहिच्यके हजारों उत्तमोत्तम ग्रन्थ संग्रहीत हुए हैं । प्रूनामें जा कर, मैं एक तरफसे इन््टिस्यूटको अपेक्षित आर्थिक मदत दिलानेका प्रयत्न करने लगा, दूसरी तरफ मैं यथावकाश प्रन्थसंप्रहके देखनेका भी काम करने लगा । उस समय यद्द प्रन्थसंप्रदड, डेकन कॉलेजके सरकारी मकानमेंसे हट कर, भांडारकर रीसच इन्स्टिय्यूटका जो नया, पर अधूरा, मक्कान बना था उसमें आ गया था । अहमदाबादकी वर्तमान गुजरात विद्या सभाके विशिष्ट संचालक, प्रो० श्री रसिकलाल छोटाछाल परीख, जो उस समय घ्रूनाकी फर्मुसन कलिजमें रीसचे स्कॉलरके रूपमें विशिष्ट अध्ययन कर रहे थे, मेरे एक अभिन्नह्हदयी मित्र एवं अतीव प्रिय शिव्यके रूपमें, इस महान्‌ प्रन्यसंप्रहके निरीक्षण कार्यमें मुझे हार्दिक सहयोग दे रहे थे । सन्‌ १९१९ के नवंबर मासमें, भांडारकर रीसच इन्स्टिस्यूटकी तरफसे, भारतके प्राव्यविद्याभिन्ञ विद्वानोंकी सुविख््यात ओरिएन्टल कॉन्फरन्सका सर्वप्रथम अधिवेशन बुलानेका महदू आयोजन किया गया । मैंने इस कॉन्फरन्समें पढनेके लिये महान्‌ आचार्य हरिभद्रसूरिकि समयका निर्णय कराने वाला निबन्ध लिखना पसन्द किया | इन भाचार्यके समयके विषयमें भारतके और युरोपके कई विख्यात बिद्वानोंमें कई वषौसे परस्पर विशिष्ट मतमेद चल रहा था जिनमें जर्मनीके महान्‌ भारतीयविद्याविज्ञ डॉ० हेमान याकोबी मुख्य थे । जैन परंपरमें जो बह्ड प्रचलित उल्लेख मिलता है उसके आधार पर आचायें हरिभद्रसूरिका! खर्गमन विक्रम संवत्‌ ५८५ माना जाता रहा हैं । पर डॉ० याकोबीकों हरिभद्रके कुछ प्रन्थसत उछेखोंसे यह ज्ञात हुआ कि उनके खर्गमनकी जो परंपरागत गाथा है वह ठीक नहीं बैठ सकती । हरिमद्रके खयंके कुछ ऐसे निश्चित उछेख मिलते हैं जिनसे उनका बि० सं० ५.८५ में खर्गमन सिद्ध नहीं हो सकता । दूसरी तरफ, उनको महर्षि सिद्धर्षिकी उपमितिभवप्रपंचा कथामें जो उछेख मिलता है, कि आचार्य हरिभद्र उनके धर्मबोधकर गुरु हैं,-- इसका रहस्य उनकी समझमें नहीं आ रहा था । सिद्धर्षिने अपनी वह मद्दान्‌ कथा विक्रम संवत्‌ ९.६२ में बनाई थी, जिसका स्पष्ट और सुनिश्चित उछेख उनने ख़र्य किया है । अतः डॉ० याकोबीका मत बना था कि हरिभद्र, सिद्धर्षिकि समकालीन होने चाहिये । इसका विरोधी कोई स्पष्ट प्रमाण उनको मिल नहीं रहा था । अतः वे हरिभद्रका समय विक्रमकी १० वीं झाताब्दी स्थापित कर रहे थे । जैन विद्दानू अपनी परंपरागत गाथा का ही संपूर्ण समर्थन कर रहे थे । मेरे देखनेमें प्राकृत कुवलयमालागत जब वह उछेख आया जिसमें कथाकारने अनेकशाब्नप्रणेता आचार्य हरिमद्रको अपना प्रमाणदास्रश्िक्षक गुरु बतलाया है और उनकी बनाई हुई प्रख्यात प्राकृत रचना “समराइच्चकहा' का मी बडे गौरवके साथ स्मरण किया है, तब निश्चय हुआ कि हरिभद्र कुवलयमालाकथा- कार उददयोतनसूरिके समकालीन होने चाहिये । उदयोतनसूरिने अपनी रचनाका निश्चित समय, प्रन्थान्तमें बहुत ही स्पष्ट रूपसे दे दिया है; अतः उसमें न्रान्तिको कोई स्थान नहीं रहता । उद्द्योतनसूरिने कुबलय- मालाकी रचनासमाप्ति शक संबत्‌ ७०० के पूर्ण होनेके एकदिन पहले की थी । राजस्थान और उत्तर भारतकी परंपरा अनुसार चैन्रकृष्णा अमावस्याकों शक संब्रत्सर पूर्ण होता है । चैन्न झुक्क प्रतिपदाको नया संवत्सर चाछ होता है । उदयोतनसूरिने चैन्नकृष्णा चतुर्दशीके दिन अपनी प्रन्थसमाप्ति की, अतः उनने स्पष्ट लिखा




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