हिंदी सूफी कवि और काव्य | Hindi Sufi Kavi Aur Kavya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लक सप्टि रचना की प्रेरणा इसी श्रात्महापन की भावना में पाई जाती है । परम्परानुसार कहा जाता है कि एक बार हज़रत दाऊद ने ईश्वर से प्रश्न किया था; “कि हे इंश्चर आपने मानव जाति की सुष्टि क्यों की” जिसका उत्तर उन्दे मिला था; “मैंने श्रपने गूढ रदस्य को व्यक्त करने की इच्छा से ऐसा किया ।' हल्लाज का भी यही कहना है कि परमसत्ता या ईश्वर स्वयं अपने स्वरूप का निरीक्षण कर रीभ गया श्र उसके इम-श्यात्म प्रेम का ही सष्टि रूप मे द्ार्विभाव हुआ । हिन्दी के सूफी कवि भी टृदीस के इन चचनों का परिचय श्रपने काव्य मे देते हैं । अन्तर केवल इतना है कि इसका उल्लेख सध्टि रचना की प्रेरणा के रूप मे नददीं ्वोता । ये कवि केवल परमात्म-सौन्दर्य की मददानता दानता' एवं सष्टि का उसके प्रतिविम्व स्वरूप होने के सम्बन्ध मे ही इसका उल्लेख करते है | यह सुष्टि नित्य है या नित्य । इस सम्बन्ध में भी सूफियों में कई विचार प्रचलित है । कुरान में सुष्टि के नित्यत्व या अ्रनित्यत्व की श्रधिक चर्चा नहीं है । इन कवियों के काव्य में इस सम्बन्ध में स्पष्टरूप से ढो विचारधाराये उपलब्ध होती है। एक तो यह फि इस सृष्टि का प्रसार उस परमसत्ता से होने के कारण यह नित्य है। दूसरा पत्त है कि इस जगत का जीवन क्षणिक है और एक न एक दिन सभी का श्न्त होना है । श्रात्मा श्रपने वाद्य परिधान का त्याग करके द्वश्य एक दिन उस परमात्मा से मिल जायगी । सष्टि के नित्यत्व के सम्बन्ध में सूफी चिन्तकों ने सदेव परमसत्ता को मूलरूप में ्रर्स्तस्थित साना है । जामी के विचार से सुष्टि सत्य का प्रत्यक्ष रूप है, वदद परमसत्ता इस प्रत्यक्ष का मूल तत्व है। सरि के मूल तत्व के रूप में इन्दोंने परमसत्ता को ही माना है | इस सुष्टि का प्रसार उसी से हुआ है दौर अन्त में यह उसी में समा जायगी । गुल्शने- राज के लेखक का कहना हे कि हमारे प्रियतम का सौन्दर्य श्ररणु परमार] तक के श्व- गुरुठन में लघ्षित होता है* ।' श्रपने “हिकमतउल श्रौलिया' ग्रन्थ में भी उसका कहना है कि वाद्य सष्टि ( द्राइन ) कोई भी चेप्टा करने में समर्थ है, इसके सारे कार्य व्यापार उसी परमसत्ता के हैं. जो इसमें चेतन रूप से ्वस्थित है । शत: “वद' को कर्ता की उपाधि प्राप्त नहीं हो सकती । उसमे स्वनन्त्र रूप से कोई भी गुण तथा शक्ति नहीं है । श्रररवी भी सुष्टि को ईश्वर की भावति नित्य मानता है । जिली भी जगत को ईश्वर का ही रूप मानना ऐ । रूमी परमसत्ता को केवल श्नुभूतिपरक मानता है श्रत: वह उसके बाह्य १ कोऊ नाहीं बीच मा श्रपते रूप लभान व्पपनों चित्र घ्ितेरा देखि ध्याप झरुकान । नुरमुहम्मद इन्द्रावती ए० ७१ । ता सम दुसर दिस्टि नश्याएंउ 1 शाप ससां दरपन मां पाएउ ॥ नूरमुहर्मद * घनुराण चांसुरी प्र० ६१३ 1 पूई ठप टारण६९ पट पिट्शाए 0 णाट छाण्छ एव एप्रतध्टा (शा भा 1550९ दिएाए 1६ 8 प्पा0प ९ कृपा 0८805 पोना301 पि82-




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