हिन्दी जैन - भक्ति काव्य और कवि | Hindi Jain Bhakti Kavya Aur Kavi

Hindi Jain Bhakti Kavya Aur Kavi by आचार्य काका कालेलकर - Aachary Kaka Kalelkarप्रेमसागर जैन - Prem Sagar Jain

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

काका कालेलकर - Kaka Kalelkar

No Information available about काका कालेलकर - Kaka Kalelkar

Add Infomation AboutKaka Kalelkar

प्रेमसागर जैन - Prem Sagar Jain

No Information available about प्रेमसागर जैन - Prem Sagar Jain

Add Infomation AboutPrem Sagar Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
भूमिका १३ था । आचार्य हेमचन्द्रने अपभ्रंश और देशभाषासे स्पष्ट अन्तर स्वीकार किया है। देशभाषाकों ही प्राचीन हिन्दी कहते है। यहीं आगे चलकर विकसित हिन्दीके रूपमे परिणत हुई । अपन्रंश और प्राचीन हिल्‍्दीकी साथ-साथ रचनाएँ होती रही । दोनोमे भेद कर पाना मुश्किल हैं । स्वयम्भुका पउमचरिउ और पुष्पदन्तका महापुराण हिन्दीकी कृतियाँ नही है । इनमे बिखरे हुए कुछ स्थल देदाभाषाके हैं किन्तु वे अल्प ही है । पुष्पदन्तसे ४० वर्ष उपरान्त हुए श्रीचन्द- का कथाकोष देशभाषाका काव्य-प्रच्थ हैं । जिनदत्तसूरि ( बि० सं० १२७४ )) का उपदेशरसायनरास दुरूह अपभ्र शका निदर्दन है जब कि इसीके आस-पास बने जिनपद्मसुरिके थूलिभ हुफागु मे देशभाषाके दर्शन होते है । अत. सिद्ध है कि बि० सं० को दसवीं दाताब्दीके प्रारम्भसे ही हिन्दी पनपने छगी थी । उतकी अनेक भवितिपरक रचनाएँ प्राप्त हुई है । ये उस युगमे लिखी गयी जिसे पं० शुक्लने वीरगाथाकाल नाम दिया है ( बि० सं० १०५०-१३७५ ) । इस युगमे बौद्ध सिद्धोने भी पर्याप्त लिखा । इसी आधारपर महापण्डित राहुल सांकृत्यायनने इस कालकों सिद्धकाल कहा और डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी उसे आदिकाल कहते है क्योकि इस नाममे वोर भक्ति और सिद्ध सभी कुछ खप जाता हू। किन्तु एक प्रश्न फिर भी बना रहा कि इस कालकी मुख्य प्रवृत्ति क्या थी ? वह कुछ भी हो इतना सिद्ध है कि हिन्दीमे जैनभक्तिकी रचनाओंका प्रारम्भ हो गया था किन्तु था वह प्रारम्भ ही । उसका विकास १४वीं शताब्दीमे देखा जाने लगा । १५वीं शती तो. जनभव्तिके पूर्ण यौवनका काल था। मेरी दृष्टिमे वह १९वीं दाती तक निरन्तर अबाधित गतिसे चलता रहा । प्रस्तुत ग्रन्थमे इन्ही ४०० वर्षोके जैन भक्त कवियों और उनके काव्यका विवेचन है । हिन्दीके जैन भक्ति-काव्यमे भट्टारको सूरियो और सन्तोंका विशेष योगदान है। पण्डितों और साधारण गुहस्थोने भी लिखा । उनका काव्य भक्ति-रसका ही प्रतीक है। कुछने अपना परिचय दिया और कुछने नहीं । खोज की ढूँढ़ा कुछ मिला और कुछ नहीं । जो कुछ प्राप्त हुआ उस आधारपर जितना प्रामाणिक अंश दे सका दिया । यदि उससे कुछ कमी रह गयो है या वह नितान्त प्रामाणिक नहीं बन सका है तो आगे अतुसन्धित्सु उसे पूरा करेंगे इसी आरवासनके साथ यह ग्रन्थ पाठकोंके समक्ष उपस्थित कर रहा हूँ । इतना अवश्य कहना होगा कि जैन-काव्यम एक ही नामके अनेक कवि होते रहें आज उनपर लिखते समय एक जालमे उलझ जाना होता है । ज्ञानभूषण नामके चार भट्टारक हुए । उनमे आदीश्वरफागु के रचयिताकी खोज एक मुह्किल काम था । इसी भाँति चार रूपचन्द्र और चार




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now