प्राकृत व्याकरण | Prakrit Vyakaranam

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Prakrit Vyakaranam by मुनि जिनविजयजी - Muni Jin Vijay Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१३) महाप्राण ऊष्मा नही होते । उन्ही वोलियों के प्रभाव के कारण क्ग्वेद की मूल भाषा को फैलने का अवसर नहीं मिला ) परिणाम स्वरूप सस्कृत के समान ऋग्वेद में भी अनेक ऐसे उदाहरण मिछ्ते हैं जहाँ पुरातन महजाण स्पां विद्यमान हैं या पुन प्रतिष्ठित हो गये । वेद एवं कई अन्य बोलियों में ड का छ हो गया परन्तु कुछ बोलियों में वह ज्यो का त्यो बना रहा । सस्कृत में भी ड अपरिवतित है । प्राचीन आये भारती में वोलियो की विविधता अनेक दूसरे आधारों से भी सिद्ध होती है । सस्कूत में गुरू धव्द मिलता है । पाली त्रथा प्राकुतो में गरू रूप भी मिलता है। सस्कृत में वही गरीयान्‌ गरिष्ठ मादि तद्धित प्रयोगों में उपलब्ध है । वैदिक तथा पस्कृत में पुरूष शब्द मिलता है । इसका आर्य-भारती रूप पू्षे प्रतीत होता है जो कि पूज-वृष्‌ से बना है । पाली में इसके पॉस पुरिस एवं पोरिस रूप मिलते हैं । मागधी में पोलिश मिलता है । बहुत सें सुबन्त एव तिडन्त पद एवं घातु तथा प्रतिपदिक वेद तथा संस्कृत्त में नहीं मिरते किन्तु मध्य आयें भारती में मिलते हैं। ये सभी इसी तथ्य को प्रकट करते हैं कि वैदिक काल में वे रूप उन वोछियो में प्रचलित थे जिन्हे वेंद अथवा संस्कृत के रूप में साहित्यिक भाषा बनने का अवसर नहीं मिला । वैदिक मौर सस्कत में स्यात्‌ (सम्भावना लिंड) रूप मिलता है। इसी से मिलता हुआ लैटिन रूप सिएत ( ऊंध ) सित्‌ ( 5६ ) है। किन्तु पाली का अस्त रूप अश्यात्‌ का परिवर्तच है । इसमें मूल घातु का अ न केवल विद्यमान है प्रत्युत प्रवल हो गया है । वेंद और सस्कत में ददाति दत्त आदि रूपो में दा घातु का द्विस् मिलता है । किन्तु प्रात और आधु- निक भापषाओ में दाति ईदित देता आदि एक द वाले रूप मिलते हैं । वैदिक सस्कृत और प्राकृत में परस्पर एवं एक ही वैदिक भाषा में भी इस प्रकार की विविधताएँ यह प्रकट करती हैं कि प्रा०ि भा० भा में कऋर्वेद की मूल भाषा के अतिरिक्त अनेक वोलियाँ थी । किन्तु इन विविध- त़ागो का क्षेत्र बडा नही है। इसीलिए वैदिक और सस्कत को समस्त भाषाओो-




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