बार्हस्पत्य राज्य - व्यवस्था | Barhaspatya Rajya Vyavastha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12.43 MB
कुल पष्ठ :
296
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १३ )
प्रदासन, विदेश नीति, मंत्र-विधि, मंत्र-प्रक्रिया, मंत्रियों के गुण दोष तथा
विभिन्न विभागों का वर्णन है । प्रथम अध्याय में राजा के महत्व, उसके
चरित्र निर्माण, उसके कर्तव्य एवं सुरक्षा के कार्यों का महत्व वर्णित है ।
द्वितीय भष्याय में राज्य की स्थिति के छिये आवश्यक साधनों, राजा के लिये
जाराध्य आदुर्शों एवं धार्मिक सम्प्रदायों का वर्णन उपछब्घ होता है । तृतीय
अध्याय में सामान्य प्रदधासन के सिद्धान्तों, शासक के लियें प्रयोजनीय
चस्तुओं, दृुण्डनीति के महत्व के झतिरिक्त विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों उनके
तीर्थ स्थानों भौर विस्तृत भौगोकिक परिधि आदि के वर्णन उपलब्ध होते हैं ।
चतुर्थ अध्याय में राजा की वेषशूषा भर मंत्रणा विधि तथा शत्रु से सम्बन्धों के
निर्धारण के प्रयन्न किये गये हैं । पश्चम अध्याय में उपायों और परीक्षा विधि
का वर्णन है । घष्ठ अध्याय में विद्या, धन, नय, मंत्रणा सौर भ्षमात्य आदि का
मददत्व वर्णित है ।
शर्थशास्त्रीय परम्परा में इस ग्रन्थ की रचना के प्रयत्न किये गये हैं ।
कौटिस्य एवं कामन्दक ने वर्णन क्रिया था कि बाहस्पत्य सतावलस्वी ( राज्य
कार्य के संचाछन के छियें ) वार्ता और दृण्डनीति को आवश्यक मानते थे ।”
इस अ्न्थ में ठीक विपरीत मत का श्रतिपादन किया गया हैं । कौंटिलीय और
कामन्दकीय में चर्णित भौदशनस् मतानुयायियों की भाँति* बृहस्पति सूत्र का
भी लेखक्र दण्डनीति को ही एकमात्र विद्या सासता है । कामन्दक द्वारा
वर्णित सप्तप्रछृति राज्य का बाहस्पत्य सिद्धान्त और अन्तर राज्य राजनीति
के प्रमुख बाहस्पत्य अष्टादशक मण्डछ” सिद्धान्त के दर्शन कहीं नहीं होते ।
कौरटिछीय सें वर्णित सोलह अमा्यों की मंत्रिपरिषद, परिहापण का दूष्श गुना
अधिक दुण्ड* भर (कक्ष, पक्ष औौर उरस्य से युक्त) प्रतिग्रह” च्यूह के बाइंस्पत्य
सिद्धान्त के दान कहीं नहीं होते । प्रो० रंगस्वामी भायंगर द्वारा संकलित
मर पर नरपनिनकपाविन वन लगन पशसशएएनटनसएसटरएसपएएएएससरएटलससएए पॉललसटय कर उसपपववरसरसप-
१. भधंगास्र, रै।२, पृ० ६ । वार्ता दण्डनीतिष्चेति बाहस्पत्या:-संवरणमात्रं
हि चयी लोकयानाविदु इति । कामन्दकीय नीतिसार २1४ ।
२, वही, १1२ पृ० ६ । दण्डनीतिरेका विद्येत्यौशनसा:
३, क्रू० सू० १1३ । दण्डनीतिरेव विद्या ।
४. कामन्दकीय ८-४ ।. अमात्य””'**' सप्तप्रकृतिक राज्यमित्युवाच
बृहस्पति:
५, वही, ८1२६ । मौला द्वादश राजान इत्यष्टाददाकं गुरु: ।
६. अथंशास्र, १४ पृ० २९ | पोडशेति बाहुंस्पत्या: ।
७, वही, २८, पु० ६३ । 'दशगुण:' इति बाहूस्पत्य: ।
८. वही, १०1६, पु० ७५ । 'पक्षो कक्षाबुरस्य॑ प्रतिग्रह/' इति बाहंस्पत्या: ।
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