रवीन्द्र संगीत | Ravindra Sangeet

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Ravindra Sangeet by मदनलाल ब्यास - Madanlal Byasशान्तिदेव घोष - Santidev Ghosh

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शान्तिदेव घोष - Santidev Ghosh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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था। सगीत में गुरुदेव इस मार्ग मे सम्पूर्ण रूप से भारतीय थे। भारतीय संगीत के जगत मे यथार्थ सगीतज्ञ का यही मूल परिचय है। इस पथ का सन्धान प्राप्त न कर सकने तक किसी भी भारतीय की दृष्टि मे उसके लिए सगीत मे बड़ा स्रष्टा बनना सम्भव नही। इस दृष्टि से जिसकी वेदना जितनी प्रबल होगी उसकी साधना उतनी ही सार्थक होगी | अत भारतीय सगीत को समझने की जब मैं चेष्टा करूँगा तब मात्र इतना ही विचार करने से काम नही चलेगा कि स्रष्टा या रचयिता ने गान की सहायता से मनुष्य का किसी प्रकार का उपकार करना चाहा है या नही या गान के द्वारा रचयिता ने किसी विशेष सुर (स्वर-समष्टि या स्वर-सज्जा) या ढग की परीक्षा कर अपने परवर्ती सगीतज्ञो का कितना उपकार या अपकार किया है। ये सब गौण है । इस गौण तत्त्व को महत्त्व देने से सगीत के क्षेत्र मे गुरुदेव का ठीक मूल्य-निर्धारण सम्भव नही। पुन सुरकार या सगीत-रचयिता के रूप मे उनका परिचय प्राप्त करने का प्रयास करते है तब भी उनके प्रति सुविचार नहीं हो पाता । यद्यपि उन्होने अपने जीवन के प्राक्काल मे बडे उस्ताद से सगीत की शिक्षा पाई थी संगीत का अनुशीलन किया था फिर भी वे अन्यो के समान सगीत के बडे पडित कभी नहीं हुए । नया कुछ करना होगा केवल इस उद्देश्य से ही उन्होंने लिखना आरम्भ नही किया । बाहयजगत की ताकीद के कारण नहीं आत्म-प्रचार या सम्मान की आकाक्षा के कारण नहीं बल्कि मात्र सगीत॑ की अन्तर्निहित प्रेरणा एव अन्तर की गहन आनन्दानुभूति से ही उनके इस सगीत का प्रकाश है । इसीलिए मैं उन्हे साधक कहता हूँ । इसीलिए हमे उनके संगीत मे सृष्टि का परिचय मिलता है। उनके अन्तर मे सुर का आवेग कितना गभीर और तीव्र था इसे उसी ने समझा है जो इस दृष्टि से किंचित्‌ मात्र भी उनके सस्पर्श मे रहा है। वे अपने-आप को सुर-जगत्‌ मे किस प्रकार भुला देते थे इसका उदाहरण उनके एक उद्धरण से मिल सकता है भैरवी तोडी रामकली का मिश्रण कर गुन्‌-गुन्‌ करते हुए एक प्रभाती रागिनी का सृजन कर मन-ही-मन आलाप कर रहा था उससे अन्तर में अकस्मात्‌ एक सुतीब्र किन्तु सुमधघुर चाचल्य जाग उठा ऐसा एक अनिर्वचनीय भाव का आवेग सचरित हुआ क्षण-भर में ही मेरा वास्तविक जीवन एवं वास्तविक जगत्‌ सम्पूर्ण रूप से ऐसे परिवर्तित स्वरूप मे दिखायी देने लगा कि अस्तित्व की सभी दुरूह समस्याओं का एक सगीतमय भावमय किन्तु भाषाहीन अर्थहीन अनिर्देश्य उत्तर कानों मे गुजरित होने लगा एक रचना में है . आसार आपन गान आमार अगोचरे आसार मन हरण करे निये से जाय भासायें सकल सीमार्‌इ यारे ॥ और एक लेख में सन्ह्ोंने कहा है गान लिखनें मे मुझे जैसे गूँथू आनन्द की अनुभूति झेती है नैसी और किसी में १८ // रवीन्द्र सगीत




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