दर्शन का प्रयोजन | Darshan Ka Prayojan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला अध्याय दर्शन का सुख्य प्रयोजन सनत्कुपार और नारद की कथा उपनिपदों में कथा है, सनस्कुमार के पास नार्‌द्‌ आए; कहा, “शिक्षा दीजिए |” अधीहि भगव इति होपससाद सनत्कुमारं नारद: । त॑ होवाच, यद्देत्थ तेनृ मोपसीद, ततस्त उर्ध्व वच्यामि, इति । स होवाच, ऋग्वेद भगवोध्येमि यजुरवेंद साम- वेद आथर्वणं चठुर्थमितिद्दासपुराणुं .पंचमं वेदामां- वेद पिन्य॑ं राशि |दैव॑निर्षि वाकों वाक्य एकायनं देवविद्यां ब्रहम॑विद्यां भू्ताविद्यां क्षत्रविधां नक्त्रविद्यां सर्पदेवजनविद्यां, एतदू भगवो5ध्येमि । सोडहं भगवो मंत्रविदेवास्मि, नात्मवितू । श्रुतें हिं मे भगवद्‌- हशेम्य: तरति शोकमात्मविद्‌ इति । सोह भगवः शोचासि । त॑ सा भगवाज्छोकस्य पार तारयहें । ( छांदोग्य, ० ७ ) सनत्कुमार के पास नारद आए, प्रार्थना की, “सुक के सिखाइए” | सनत्कुमार ने कहा, “जो सीख चुके हो वह बताओ, तो उस के 'झागे की बात तुम से. कहूँ ।” बोले, “ऋक, यजु, साम, अथवे, ये चीरो वेद, पंचम चेद रूपी इतिहास पुराण जिस के बिना वेद का अर्थ ठीक समभ में नहीं आ सकता, बेदों का वेद व्याकरण, परलोकगत पितरों से श्ौर इस लोक में वर्तमान मनुष्यों से परस्पर प्रीति और सहायता का बनाए रखने वाला श्राद्कल्प, राशि र्थात्‌ गणित, देव अर्थात्‌ उत्पात ज्ञान शकुन ज्ञान, अथवा दिव्य प्राकृतिक शहिययों का ज्ञान, निधि अर्थात्‌ एथ्वी में गड़े धन का ज्ञान, 'छथवा छोकर शाख्र, वाकोवाक्य 'अर्थात्‌ तक शाखर, उत्तर-प्रत्युत्तर शास्र, युक्ति-प्रतियुक्ति




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