उपदेश मंजरी | Upadesh Manjari

Upadesh Manjari by दयानन्द सरस्वती - Dayananda Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्ध उपदेश-सज्जरी इस प्रकार का एकादशलक्षणी सनातन धर्म है [जो मनुष्य मात्र का कर्तव्य है 1] एतद्ेशप्रसूतस्य सकाशादू अग्जन्मन । स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरनू पृथ्चिव्यां सर्वमानवा ॥। व्यवहार धर्म की ओर भी ध्यान देना चाहिए । सारी दुनिया में इसी आर्यावर्त से विद्या गयी । इस आर्यावर्त देश के आर्य पुरुषों के वैभव का वर्णन जितना ही किया जाय थोड़ा है । समुद्र पर चलने वाले जहाजों पर कर लेने की आज्ञा मनु ने अष्टमाध्याय में लिखी है-- समुद्रयानकुशला देशकालार्थदर्शिन । स्थापयन्ति तु यां वृद्धधिं सा तत्राधिगमं प्रति ॥। इससे स्पष्ट है कि समुद्र-यानादिक पहले हमारे लोग बनाया करते थे । अधर्म--अर्थात्‌ अन्याय इसका विचार करना चाहिए । सनु ने ऐसा लिखा है कि-- पर द्रव्ये ष्वभि ध्यानं॑ सनसानिष्ट चिन्तनम्‌ । वित्तधाशिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसभ्‌ ॥। पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं ापि सर्वशः । असम्बद्धप्रलापश्च वाइसयं स्याच्चतुर्विधम्‌ ॥ अदत्तानासुपादानं हिंसा चैवाविधानत । परदारोपसेवा चर शारीरें त्रिविध स्मृतम्‌ रै ॥ मानसिक कर्मों में से तीन मुख्य अधर्म हैं । [ परद्रव्येष्वभिध्यानम्‌ अर्थात्‌] परद्रव्सहरण अथवा चोरी मनसानिष्टचिन्तनम्‌ अर्थात्‌ लोगों का बुरा चिन्तन करना मन में द्वेष करना ईर्ष्या करना वित्थाभिनिवेश अर्थात्‌ मिथ्या निश्चय करना । वाचिक अधर्म चार हैं--पारुष्य अर्थात्‌ कठोर भाषण | सब समय सब ठौर मूद॒ु भाषण करना यह मनुष्यों को उचित है । किसी अन्थधे मनुष्य को आ अन्धे ऐसा कहकर पुकारना निस्संदेह सत्य है परन्तु कठोर भाषण होने के कारण अधर्म है। अनृत भाषण अर्थात्‌ झूठ बोलना । पैशुन्य अर्थात्‌ चुगली करना । असम्बद्धप्रलाप अर्थात्‌ जान बूझकर बात को उड़ाना। शारीरिक अधर्म तीन हैं--अदत्तानामुपादानमू अर्थात्‌ चोरी । हिंसा अर्थात्‌ सब प्रकार के क्रूर कर्म । परदारोपसेवा अर्थात्‌ रंडीबाजी चा व्यभिचारादि कर्म करना । किसी मनुष्य ने अपने खेत की जमीन में न ६. सनु० २।२०॥ २. सनु० ८ | १५७ ॥ ३. समुल १२।५ ६ ७॥




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