आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिन्तन | Aadhunik Bharitya Rajnitik Chintan
श्रेणी : पाठ्यपुस्तक / Textbook, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
39.57 MB
कुल पष्ठ :
648
श्रेणी :
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डॉ सत्यनारायण - Dr. Satyanarayan
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विश्वनाथ प्रसाद - Vishvanath Prasad
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सारत में पुर्जागरण तथा राष्ट्रवाद फ समाज की उत्पत्ति साली तथा मराठा जातियों के सुधार के लिए हुई थी किन्तु बाद में इसने स्पप्टतः ब्नाहमण-विरोधी दिशा अपना ली । फिर भी यह कहा जाता है कि फुले ने कोल्हापुर मानहानि के अभियोग में तिलक के लिए बैयक्तिक जमानत की व्यवस्था की थी । फुले की आलोचनाओं के विरुद्ध ही चिपलूणकर ने प्रसिद्ध निवन्धमाला में कट म्त्संनात्मक लेख लिखे थे । महाराष्ट्र के नैतिक तथा सामाजिक जीवन में इनसे कहीं अधिक महत्वपूर्ण प्रार्थना समाज था । 1849 में दावोदा पाण्डुरंग (1823-1898) ने ब्रह्म समाज की एक दाखा के रूप में परमहंस समा की स्थापना की थी किन्तु वहू महत्वहीन सिद्ध हुई और शीघ्र ही निष्क्रिय हो गयी । 1867 में केशवचन्द्र सेन बम्वई गये भर प्राथना समाज की स्थापना में पहल की । आर. जी. भण्डारकर (1837-1927) तथा महादेव गोविन्द रानाडे प्रार्थना समाज के दो बड़े नेता थे । वाद में एन. जी. चन्दावरकर भी उनके साथ समाज में सम्मिलित हो गये । समाज ने श्रद्धा तथा शान्तिपुर्ण चिन्तन के स्थान पर सामाजिक कार्य को अधिक महत्व दिया। उसकी दिशा सुधारवादी थी और उन्होंने विघवा विवाह अन्तर्जातीय विवाह तथा अन्तर्जातीय खानपान का समर्थन किया । उसने समाज के अधिकारहीन तथा दरिद्र वर्गों के उद्धार को भी अपने कार्यक्रम में सम्मिलित किया । प्रार्थना समाज पर ईसाइयत के आस्तिकवाद का भी कुछ प्रभाव था । जहाँ तक सामाजिक सम्वन्धों की वात थी ब्रह्म समाज की तुलना में उसकी जड़ें हिन्दुत्व में अधिक गहरी थीं । रानाडे ने स्वयं सदैव इस बात को बल देकर कहा कि समाज के सदस्यों ने अपने को हिन्दू समाज से प्रथक् करके नया सम्प्रदाय बनाने का कभी इरादा नहीं किया । उच्चीसवीं दाताब्दी के महाराष्ट्र में दावोदा पाण्डुरंग वालशास्त्री जम्बेकर नाना संकरसेत विष्णुश्ञास्त्री बम्बई के डा. भाओदाजी और गोपाल हरि देशमुख (1823-1892) आदि अनेक महानु व्यक्ति थे जो पूना के हितवादी कहलाते थे । आर. जी. मण्डारकर मारत-विद्या-विशारद के रूप में सम्पूर्ण देश में विख्यात हो गये और संस्कृत के विद्वान के रूप में तो उनका नाम संसार भर में प्रसिद्ध हों गया 11 सामाजिक सुधार में उनकी गहरी रुचि थी । के. एल. नुल्कर अन्य महत्वदाली व्यक्ति थे । किन्तु रानाडे ने सबसे अधिक श्रेप्ठता तथा प्रतिप्ठा प्राप्त की । कुछ अर्थ में रानाडे को महाराष्ट्र के जागरण का जनक माना जाता है । उनका व्यक्तित्व इतना शाक्ति- छाली था कि वे वम्बई प्रान्त के सर्वाधिक महत्वदाली राजनीतिक नेताओं के गुरु वन गये । यहाँ तक कि गोखले भी उन्हें अपना गुरु मानते थे । महादेव गोविन्द रानाड़े ने 1865 में एम ए. की उपाधि प्राप्त की और दूसरे वर्ष विधि की उपाधि प्राप्त कर ली । 1871 में वे पुना में अधीन न्यायाधीदय के पद पर सनियुक्त हुए और 1893 में उन्हें पदोन्नत करके पुना उच्च न्यायालय का स्यायाधीका नियुक्त कर दिया गया । रानाडे की मेघादाक्ति अत्यन्त सुकष्म तथा गम्मीर थी | उनके गएसेज ऑन इंडियन इकौनामिक्स (भारतीय अथश्ञास्त्र पर निवन्ध) उच्चकोटि की सुभ-दूक के य्योतक हैं । उनका आग्रह था कि मारत की आाथिक समस्याओं को भारतीय हप्टिकोण से देखने भौर समभने का प्रयत्त करना चाहिए 1 वे एडस स्मिथ रिकार्डों मिल आदि के आधिक सिद्धान्तों को बिना समीक्षा किये ज्यों का त्यों अंगीकार कर लेने के विरुद्ध थे दर उनकी राइज गाँव मराठा पांवर (मराठा दाक्ति का उत्कर्ष) नामक पुस्तक यद्यपि अपूर्ण है फिर भी उसमें उन्होंने मराठा संघ के मुल में निहित राष्ट्रीय मावनाओं का जिस ढंग से विवेचन किया है उसको देखते हुए उसका विशेष महत्व है । उन्होंने घार्मिक देव-विद्या के सम्बन्ध में भी कुछ महत्वपूर्ण निवन्व लिखे । उनकी अनेक क्षेत्रों में व्यापक रुचि थी । मारतीय राष्ट्रीय कॉग्रेस की नींव डालने वाले नताओों के साथ उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था । प्रिंटिश सरकार की सेवा में एक त्यायाघीदा होने के नाते वे कांग्रेस के कार्यकलाप में खुलकर सम्मिलित नहीं हो सकते थे किन्तु पर्दे करे पीछे रहकर उन्होंने महत्वपूर्ण काम किया । यही कारण था कि ब्रिटिदा सरकार उन पर सन्देह करने लगी और उन्हें वम्वई विरवविद्यालय का उप-कुलपति कमी नियुक्त नहीं किया गया यद्यपि तेलंग मण्डार- 19 (एगाध्दडिव फिगर एक. 0. सदाएंदाईया (4 जिल्दें) एस एन कर्नाटकी ्वारा रचिच 2. था मो 0. सिदादंवादा
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