चंद्रकांत वेदान्त ज्ञान का मुखग्रंथ भाग 3 | Chandrkant Vedant Gyan ka Mukhgranth Bhag 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अन्थकर्वाका * स्वात्सकथन * द्ु ् स्वात्मकथन ” का परिशिष्ट, इतना सात्मकंथधन श्रन्थकर्तीका स्त्रकीय लेख है. यंद १९०४ में छिखा गया था. मनन्तर वे १९१२ की २५ वीं दिसम्बर तक विद्यमान थे. श्रीम- न्महाभारतका दूसरा भाग उनके शुभ हस्तसे १९११ में प्रकाशित हुआ था. तृतीय भाग भी _भाषेसे अधिक छप चुका था, जिसे उनके सुपुत्र और गुजरात्ती * यत्रके बलैमान संपादक तथा संचाठक रा. मणिछाढ़ने पूर्ण करके १९२१ में प्रकट किया था. “ चत्द्रकान्त”का तृतीय भाग श्ल्थ कर्तानि १९०७ में प्रकाशित किया और उसकी दो आावृत्तियां अपने जीवन- काछमें ही उन्होंने प्रकट कीं तथा चौथे भागका भी प्रारस्म कर दिया था? पर उसे पूर्ण करनेके छिये वे इस संसारमें रदे नहीं. चतुथे भागमें भगवान शीक्ृष्णचन्द्रजीके 'मुखसे श्रीगीताजीके पन्‍्द्रहवें अध्याय उनके भक्त अजुनसे जो बात कहीं गयी थी कि “*्यद्वत्वा न निवतेन्ते तद्वाम परम मम” ऐसे केवल्य धघामका वर्णन अपने अन्य अनस्य भक्त उद्धवजीकों स्वघाम- प्रयाणके पूवें रेवताचल पवैत्तपर समझा दी गयी थी; यह कथा वर्णन करनी ऐसी उनकी इच्छा थी. पर भगवानके परमधाम-कैवल्य -धामका ब्णन प्रात जनोंके चनिसित्त हो यद्द ठीक नहीं; ऐसी इच्छा मानों भगवान्‌ श्रीरा- मकी भी हुई इसीसे उन्होंने इच्छारामको परमधाममें सं. १९६९ की कार्तिक शुक्ठ १९ के उपरान्त न्रयोदशीको बुला लिया. उनका स्थूछ देह इस दिंन दयान्त हुआ; पर जरामरणके भयसे रहित इनका यदःकाय चन्द्रका- स्तादि रससिद्ध सुकुतियोंसे ममर होकर जय प्राप्त कर रहा है, अन्थकर्ताका संक्षिप्त आत्मजीवन पूर्वोक्त प्रकारका है. इन्होंने गुजराती भाषामें कितने दी अंथ रचकर सादित्य और धर्मकी जो कुछ सेत्रा की है; उसका नौमनिर्देश किये बिना यह आात्मकंथन अपू्ण -ही रद जाता है. ठीक बाल्यावस्था सर्थात १८७१ में इन्दोंने सत्यनारायणकी कथा छपायी थी. यह प्रसंग उनकी साहित्यसेवा और लेखनप्रशडत्तिका बीज था. उसके पीछेका द्ृत्तांत -ऊपर वर्णित हो चुका हैं. इन्होंने गुजराती भाषाके प्राचीन कवियोंकि काव्योंका शोधन करके ' वृदत काव्यदोदन * के भाठ भाग प्रकाशित किये. १८८६ में ' हिन्द अने त्रिटानिया * लिखनेके पश्चाव,




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