धर्मवीर जिनदास | Dharam Veer Jindas
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm, धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9.42 MB
कुल पष्ठ :
332
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(४३) घर्मवीर जिनदास दया ही देवो श्रोर दानवो मे भेद करती है। जिसके दिल मे दया नहीं वद्द दानव है और जिसके हृदय मे दया का शुचिंतर प्रवाह बहता रहता है वह देव है । दया अन्तःकरण की वक्ता को नष्ट करके सरलता उसन्न करती है । क्ररता का अन्त करके कोमलत को जन्म देती हे दया चित्त में भाँति-भॉति के सद्गुण रूपी सो रमपरिपूण सुमनो का विकास करती है । मनुष्य के जीवन को पवित्र और प्रशस्त बनाने वाली है। चशस से चृेशस और भयकर से भयकर प्राणी भी दया के प्रताप से मेन्नी ओर करुणा का सागर बन जाता है । प्रतिदिन छठ पुरुपो और एक नारी की हत्या करने वाला निद्य अजु न माली केसे परम-दयालु बन गया ? किंसके प्रभाव से वह विश्व-मेंत्री का परमाराधक बन कर परमात्मपद को श्राप कर सका ? बद्द दया का हो परम प्रताप था दया-देवी की उपासना करके वह दानव से मद्दादेव बना । दूसरों को सताने वाला इतना सददनशील बन गया कि दूसरों द्वारा सताये जाने पर भी चह समताभाव में ही स्थित रहा ०३ च 0 #५... प तो जो ब्या-देवी अजु न माली जंसे पतित्तात्मा को भी परमात्मा की पक्ति में पहुचा देती है उसका माददात्य वणन करने की शक्ति किस मे है ? प्रश्न किया जा सकता है कि जिस दया को इतना अधिक माहात्म्य है और जिसमे इतना अधिक प्रभाव है उसका रयरूप कया हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यद्द हैं परस्मिन वन्वुवर्गे वा मित्रे द्वेष्ये रिपौ तथा | आत्मवद्धर्तित्तव्य हि दयैपा परिकीतिता ॥।
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