अखंड सौभाग्य | Akhand Saubhagya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ७ | निषुणता कंसे समा गई है ? वे पटरानी से इसका रहस्य समझ कर सत्संग में जाने का भी विचार करने लगे । इसकी शिक्षा जनहितकारी लेनी है हर वार । कंसे आई इतनी निपुणता पूछ रहे नर नार ॥। जनमन प्यारी मगलकारी समता जग मे है सुखकार । महाराजा सोचने लगे कि मै किसी का स्वामी हूं- यह अभि- मान व्यर्थ है । मैं अपनी महारानियो का तो अपने ध्रापको स्वामी मानता ही हू लेकिन वया यह भी सच है ? असली स्वामिनी तो वड़ी महारानी है जिसने श्रपने आदर्श जीवन से सबका आध्यात्मिक एवं मानसिक रूपान्तरण कर दिया है--ऐसा रूपान्तरण जो. बड़ा कठिन होता है । स्त्रिया स्वभाव से ही. राग-रंग की प्रेमी होती हैं तथा सौन्दयं प्रसाधनों के प्रयोग को चाहती है किन्तु बड़ी महारानी ही पुरी सादगी से नही रहती वत्कि उसने सभी पर सादगी का पवित्र रंग चढा दिया है । वे गहरे विचार मे डूव गये कि जब राज-परिवार में सभी बडी महारानी का अनुसरण कर रहे है तो भला मैं ही उससे वचित क्यो रहूं ? पहले मैं उसमे यह तो पूछ कि सबके जीवन में यह मोड केसे आया ? एक दिन पुनः महाराजा अपनी वड़ी महारानी के कक्ष मे पहुंचे । महारानी ने उनका यथोचित स्वागत किया तथा उन्हे एक आसन पर थिठा कर वह कुछ दूर वेठ गई । महाराजा आश्चर्य करने लगे कि वह उनसे दूर क्यों वेठी है ? कारण महारानी की नैतिकता से सम्बन्धित था । एक वार जब नाशवान पदार्थों का ममत्व छूट जाता है और प्रहमाचयं ब्रत शभ्रंगीकार कर लिया जाता है तय संसर्ग- गत नियमों की अनुपालना भी अनिवायं हो जाती है । महारानी भी उसी नेतिकता के पथ पर आगे बढ रही थी । महाराजा इस कारण को नहीं समभक पाये और विचार करने लगे कि जब ये महा- रानी को विवाह कर लाये थे तब उसकी मेरे प्रति दृष्टि और ही थी और आज वह दुष्टि और ही दिखाई दे रही है--ऐसा क्यो है ? इस महिला मे इतना ज्ञान इतनी चतुराई और इतनी आत्मधक्ति कहा से था गई है? हर




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