भोजपुरी लोक गीत | Bhojpuri Lok -geet

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कृष्णदेव उपाध्याय - Krishndev upadhyay

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बलदेव उपाध्याय - Baldev upadhayay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्ररतावना श श--प्राम-गीतों का परिचय तथा विशेषता एक समय था जब ससार के समग्र देगो मे मनुष्य प्रकृति देवी का उपा- सक था, प्राकृतिक जीवन व्यतीत करता था। उस समय उसका आचार- विचार, 'रहन-सहन, सब सरल, सहज तथा स्वाभाविक थे। वह आडम्वर, दिखावा तथा कुंच्रिमता से कोसो दूर रहता था। उसके कोग में 'कृष्रिमता' बन्द का एकदम अभाव था। वह तो स्वाभाविकता की गोद में पा हुआ जीव था। उसके समस्त कार्य--उठना-वैठना, वोलना-चालना, हँसना- गाना, स्वाभाविकता में पगें रहते थें। कविता उस युग मे भी होती थी। चित्त के आह्व्लाद के निमित्त कविता की रचना उस समय भी होती थी और आज भी होती है, परन्तु दोनो युगो की कविताओ में जमीन आसमान का अन्तर हू। आज की कविता नियम की पावन्दी में जकडी हुई है, छन्द की नपी तुली नालियो से प्रवाहित टद्ोतती हूं, अलकार के वोकिल भार से वह दवी हुई हूं, परन्तु जिस प्राचीन युग की चर्चा हम कर रहे है उस युग की 'कविता का प्रघान मुण था स्वाभाविकता, स्वच्छन्दता तथा सरलता। वह उतनी ही स्वाभाविक थी जितना जगल का फूल, उतनी ही स्वच्छन्द थी जितनी आकाश में उड़ने वाली चिडिया, वैसी ही सरल थी जैसे गगा का प्रवाह । उस समय की कविता का जो अद् आज अवधिष्ट रह गया है वही हमें ग्राम-साहित्य, लोककाव्य अथवा लोकगीत के रूप में उपलब्ध हो रहा है। भारतवासियों का जीवन सदा से समीतमय रहा हू । गायद ही दूसरी कोई जाति होगी जिसके जीवन पर सगीत का इतना प्रचुर प्रभाव पडा हो ।




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