सुख यहां (भाग ३ - ४) | Sukh Yahan (bhag 3- 4)
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25.45 MB
कुल पष्ठ :
396
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पवन कुमार जैन - Pavan Kumar Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दोट्टा ४-६ श्श् तैराश्थ्येपि हि नैराश्य॑ तस्य का तुलना भुवि । प्रतो नैरोश्यमालम्ब्य स्यां स्वस्मै स्वे सुखी स्वयम् ॥४-६।॥। जगत्कें भ्रत्य जितने भी पदार्थ है बे सब स्वतत्र है जुदा है । सबका स्वरूप त्वारा न्यारा है। जितने भी जीव है वे सब श्रपने-प्रपने स्वरूपमे है श्रौर जितने दिखने वाले पौदगलिक पदार्थ है वे सब भी श्रपने-ग्रपनेमे स्वतंत्र है । स्थतंत्रके मायने यह हैं कि सब श्रपनी-शझपनी स्वरूप सत्तासे है । वे सब कोई किसी दुसरेकी सत्तासे नहीं है । इसी कारण मैं कुछ विचा- रता हूं तो उस विचारके कारण श्रापमे कुछ बात पैदा नहीं होती । झ्राप कुछ सोचते है करते है उसके कारण श्रन्यमे कोई बात पैदा नही होती । हम श्रपना ही काम करने वाले है श्राप श्रपना ही काम करने वाले है । जगत्के सारे जीव श्रपना-श्रपना काम किया. करते है । यही एवज है कि एक जीवका स्वामी दूसरा जीव नही है । किसी पर तुम्हारा श्रधिकार नहीं है । जब ऐसी बात है तब किसकी आशा रखना कि हमे इससे लाभ मिलेगा । झ्राशा करना व्यर्थ है । कक भैया कभी श्राशाके भ्रचुसार कोई काम बन गया तो. यह न सोचो कि हमने ऐसी श्राशा की थी इससे काम बन गया । बाहरमें तो जब जिसका जो होता है होता ही है । वहाँ हमारा किसीसे मेल खा जाय यह दूसरी बात है । हमने पराशा की इसलिए यह काम बना यह बात बिल्कुल गलत है । हम तो वहां केवल श्रपना विचार ही बना सके विकल्प प्रौर ख्याल ही कर सके इसके सिवाय बाहरमे कुछ नहीं किया । जो मोही जीव हैं. श्रह॑ं- कारसे पूर्ण वासनाए बनाए हुए है कि यह मेरा मकान है यह मेरा घर है यह मेरी दुकान है यह मेरा कुटुम्ब है । ये मेरे परोपकार करने वाले है । श्राशाए रखना ही श्रज्ञान है । यही जीवका मोह है । ज्ञानी जीव तो यह विश्वास रखता है कि मै तो श्रंपना ज्ञानस्वरूप कर सकता हूँ श्रौर इससे प्रघिक श्रगर बिंगड गया तो. राग ढेष कर लिया भ्रपनेको सता लिया श्रपनेको ही कर लिया । जैसा बन पाया वैसा कर लिया । मै दूसरोका कुछ नहीं कर सकता श्रौर इसी तरहसे दूसरे मेरा कुछ नहीं कर सकते । ऐसा ज्ञान जब जगता है तो परपदार्थोकी श्राशा छूट जाती है । तब वास्तविक ज्ञान कया है ? श्राशा न रखना । श्राशा कर करके ही दुःखी हो रहे हैं। लोगोने बचपनसे लेकर श्रब तक कितनी ही शथ्राशाएं नहीं की पर हे श्राशा बतला तु प्रब तक किसीकी हो सकी ? नही हो सकी । री आ्राशा तेरे लिए वया-क्या काम नहीं किया ? कहाँ-कहाँ नहीं छूमा ? कौन-कौनसी चीजोमे निगाह नहीं दौडाई ? सब कुछ कर डाला बता श्रब तक राजी हुई कि नही ? राजो हो गई तो ठीक है नहीं हुई तो तु जा जो कुछ
User Reviews
No Reviews | Add Yours...