जैन - भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि | Jain Bhaktikavya Ki Pristhabhumi

Jain Bhaktikavya Ki Pristhabhumi by प्रेमसागर जैन - Prem Sagar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सामनेकी एक पहाड़ीको अपनी मन्त्र-विद्यासे स्वर्णकी बनाकर भी दिखा दिया । आचार्य समन्तभद्रने स्वयम्भू-स्तोत्रके उच्चारणसे चन्द्रप्रमकी मूत्ति प्रकट कर दी थी । भाचार्य मानतुंग ४८ तालोंमें बन्द थे । भक्तामरके एक-एक इलोकपर ताले खुलते गये और वे बाहर आ गये । भट्टारक ज्ञानभूषण मन्त्रोंके विद्षेष जानकार और साधक थे। उन्होंने उनका प्रयोग मूत्तियों और मन्दिरोंके बनवाने और उन्हें पवित्र करनेमें किया । जैन साधुओंके पास बविद्याएं थीं मन्त्र थे देवियाँ सिद्ध थीं किन्तु उन्होंने उन्हें राग-सम्बन्धी पदार्थोमें कभी नहीं लगाया । जैन मन्त्र सांसारिक वैभवोंके देनेमें साम्थ्यवान होते हुए भी वीतरागी बने रहे। देवियाँ जिनेद्रकी भक्त थीं और वे अपने साधकोंको केवल वीतरागी भावोंके पोषणमें ही सहायता करती थीं । कुछ चैत्यवासी साधुओंमें एक ऐसी लहर आयी थी जो राग-सम्बन्धो सिद्धिकी ओर मुड़ रही थी किन्तु अनेक आचार्योके जोरदार विरोध- ने उसे समाप्त हो कर दिया । लहर आयी और चली गयी । जैनमस्त्रोंकी वीत- रागता भारतीय संस्कृतिका शानदार पहलू है । इन देवियोंके अतिरिक्त जन लोग देवोंके भी उपासक थे । इस ग्रन्थमें यक्ष घरणेन्द्र इन्द्र लौकान्तिकदेव सूर्य नायगामेष ब्रह्मदेव नागदेव और भूतोंपर लिखा गया है । यक्ष मन्त्रोंसे सिद्ध होते हैं किन्तु वे केवल उन्हींकी सहायता करतें हैं जो जिनेन्द्रके भक्त हैं । जिन-शासनके प्रचार में उनका योगदान प्रसिद्ध है। धरणेन्द्र देवी पद्मावतीके पति हैं । उन्हींने तीर्थड्र पाइर्वनाथकी भूतानन्दके भोषण उपसगंसे रक्षा की थी । पद्मावतीसे सम्बन्धित मन्त्र धरणेन्द्रपर भी लागू होते हैं । नागोंको जन परम्परामें देव माना गया है। उनकी संसिद्धिसे मनो- कामनाएं पूरी होती हैं । प्राचीनतम भारतमें एक जाति नागोंकी इतनी भक्त थी कि उसका अपना नाम नागजातिके नामसे विख्यात हो गया । इसमें भारतके प्रसिद्ध राजे विद्वान्‌ और साधु हुए हैं । जेनोंमें भूतोंकी भी आराधना प्रचलित हू किन्तु केवल उनके द्वारा सम्भावित बाधाओंका निराकरण करनेके लिए ही । जन लोग उन्हें विध्नकारक मानते हैं। नायगामेष गर्भधारणके देवता हैं । उनकी विचित्र रूपरेखा भआकर्षणका विषय है । कहा जाता है कि देवी त्रिशलाके गर्भ परिव्तनमें उन्हींका हाथ था । भारतीय संस्कृतिके अध्ययनमें जैन पुरातत्त्वका गौरवपूर्ण स्थान है। यदि उसे निकाल दिया जायें तो ऐसा समझना चाहिए कि एक बिद्षेष अंदाको ही निकाल दिया गया । भगवान्‌ ऋषभदेवके पुत्र सम्राट्र भरतने पोदनपुरमें अपने भाई ब्ाहुबलि जिन्होंने बारह वर्ष तक तप किया था की खड्गासन मूत्ति बनवायी




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