कलकत्ता से पीकिंग | Calcutta Se Peeking
श्रेणी : संस्मरण / Memoir
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.79 MB
कुल पष्ठ :
172
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कलकत्ता से पीकिंग श्र
को, छुरां भोक देने को तैयार । श्रौरतों को जहां-तहां छेड़ देते, झ्ावाें
कल देते, लोग चुपचाप मुस्करा कर, तरह देकर, जैसे पागलों को देते
हैं, चले जाते । यह हांगकांग है, कुछ भी हो सकता है, रोजू एकाघ'
खून होते रहते हैं। हम भी लौट पड़े । सुबह दस बजे ही कान्तोन के लिए
दुन में रवाना होना था । सोचा, तड़के एक यार श्रौर घाट की ध्ोर
निकल श्राऊंगा ।
सीधा खाट पर जा पड़ा--बिस्तर पुकार रहा था । ग्यारह बज चुके
थे । लेटते हो नींद लग गई।
उन्निद्र का रोगी हूं । साधारणतया नॉद नहीं श्राती । पर श्राज को
रात सोया, खासी गहरी नींद । नींद सहसा खुल गई । घड़ी में देख, तो
चार बज चुके थे । बाहर चिडियां चहचहा रही थीं । ख़िड़फी के नीचे
सड़क पर भ्रौरतों को श्रावाजू, तीखी घुंवरदार हंसी, टकरा फर गूंज रही
थी।
गुडपल्ली खरांटें भर रहे थे । पर मु तो घाट बरबस खौंचनें तगा ।
उठा श्रौर श्राप घंटे में हो बाहर निकल गया ।
घाट प्राय: निर्जन था । नगर प्रभात के उस पिछले पहर की मादक
नींद में विभोर था, जब 'पुनपुनर्जायमाना पुराणी सतत किशोरी उपा
चराचर की श्राँसो पर जादू डाल देतो है, जब उसके स्पर्श से स्वप्नों का
सम्मोहक संसार सिरज उठत। है ।
वातावरख शान्त था । शान्ति के सिवा जैसे किसी श्न्य का
भ्रस्तित्व न था । जहाज नोड़स्थ निद्चित पक्षियों को भाति घाटों पर बेचे
पानी पर डोल रहे थे ।
हांगकांग सदियों छोड़े प्राचीन नगर फी भांति सुना पड़ा था,
सुनेपन का झफेला श्विरुल विस्तार । श्रलसाया प्रभात साड़ी पर उतरा
मा रहा था, घराचर को रंगता । म्लान बंजगी लहरियों में पोताभ चमक
नाथ रही थी । देर तक सडा मुग्ध मन उपया के रयमार्ग की झोर देखता
रहा । सहसा पी फट गई ।
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