योग - शास्त्र | Yog Sastra

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Yog Sastra by आचार्य हेमचन्द - Achary Hemchandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक परिशीलन गछ मोक्ष के साथ संबंध कराने बाली क्रिया को, साधना को हो “योग” कहते हैं । जैन-श्रागम मे 'सवर' शब्द का प्रयोग हुश्ना है । यह जैनो का एक विशेष पारिभाषिक दाब्द है । जैन विचारकों के श्रतिरिक्त श्रन्य किसी भी भारतीय विचारक ने इस शब्द का प्रयोग नहीं किया है । “सवर' शब्द घ्राध्यात्मिक साधना के झरथे मे प्रयुक्त हुआ है । पास्रव का निरोध करने का नाम संबर है ।. महषि पत्जलि ने योग-सूत्र मे चित्त-ृत्ति के निरोध को योग कहा है । इस तरह सवर श्रौर योग--दोनो के अथे में 'निरोध' दाब्द का प्रयोग हुमा है । एक मे निरोध के बिदेषण के रूप छे श्रास्व का उल्लेख किया है भ्रौर दूसरे मे चित-वृत्ति का 1 जैनागम मे मिथ्यात्व, भ्रविरति, प्रसाद, कघाय, श्ौर योग को श्रास्व कहा है ।* इसमे भी मिथ्यात्व, कषाय एव योग को प्रमुख माना है। भ्विरति श्रौर प्रमाद--कपषाय के ही विस्तार मात्र हैं । यहाँ यह समभ लेना चाहिए कि जनागम मे उल्लिखित श्रास्व मे जो 'योग' शब्द झाता है, वह योग परपरा सम्मत चित्त-वृत्ति के स्थान मे है। जैनागम में मन, वचन श्रौर कायिक प्रवृत्ति को योग कहा है । इसमे मानसिक श्रवृत्ति तीनो का केन्द्र है। क्योकि कमं का बन्घ वचन शझ्ौर काया की प्रवृत्ति से नही, बल्कि परिणामों से होता है 13 इस तरह योग-सुत्र मे जिसे चित्त-वृत्ति कहा है, जैन परंपरा मे उसे श्रासव रूप योग कहा है । १. निरुद्धासवे (संघरो), उसराध्ययन, २९, ११; प्रास्व-निरोध' संचघर, तस्वा्थ सुत्र, €, १ । २. पंच झ्रासवदारा पण्णता, ते जहा--मिच्छतं, अधिरई, पसायो, कसाया, जोगा । -संमवायांग, समदाय ५. थे. यरिलणासे अन्थ ।




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