गढ़वाली भाषा | Gadhwali Bhasha (1959)

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Gadhwali Bhasha (1959) by डॉ गोविन्द चातक - dr. Govind Chatak

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श्री धाम सिंह कंदारी और चंद्रा देवी के ज्येष्ठ पुत्र डॉ गोविन्द सिंह कंदारी का जन्म उत्तराखंड के कीर्ति नगर टिहरी गढ़वाल के ग्राम - सरकासैनी, पोस्ट - गन्धियलधार में हुआ |
शुरुआती शिक्षा इन्होने अच्चरीखुंट के प्राथमिक विद्यालय तथा गणनाद इंटर कॉलेज , मसूरी से की |
इलाहबाद (प्रयागराज) से स्नातक कर आगरा विश्वविद्यालय से पी.एच.डी कि उपाधि प्राप्त की |
देशभर में विभिन्न स्थानों पर प्रोफ़ेसर तथा दिल्ली विश्ववद्यालय में प्रवक्ता के रूप में सेवारत |
हिंदी भाषा साहित्य की नाटक, आलोचना , लोक आदि विधाओं में 25 से अधिक पुस्तकें लिखीं |

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ क | महत्त्वपुणं नहीं है तथा वे ऐसी समानताश्रों को भ्रन्य भाषाओं में भी संकेतित करते हैं । इन समानताश्रों में पहलीं समानता ध्वन्यात्मक है । राजस्थानी तथा गढ़वाली दोनों में रा, ड़ तथा ल ध्वनियां समानत: पाई जाती हैं । यद्यपि ड़ ध्वनि परिनिष्ठित एवं कथ्य खड़ी बोली में भी पाई जाती है, किन्तु वहां यह उत्क्षिप्त मुर्घन्य (प्रतिवेष्टित) 'ड' का हो ध्वन्यंग (8110 1076) है, स्वतन्त्र ध्वनि (एफ0ा€८ाए८) नहीं । राजस्थानी कीं भांति गढ़वाली में भी “ड़” तथा “ठ' स्वतन्त्र ध्वनियां हैं, यद्यपि ये केवल स्वरमध्य तथा पदांत में ही पाई जाती हैं, पदादि में नहीं । ठीक यही बात “रण ध्वनि के विषय में कही जा सकती है। यह भी इन दोनों बोलियों में परिनिष्ठित खड़ीं बोली की तरह 'न' का ध्वन्यंग नहीं है, तथा यह ध्वनि कथ्य खड़ी बोली तक में पाई जाती है। ऐसा जान पड़ता है, भारत के नक्शे में हमें पहाड़ी प्रदेश से चलकर खड़ी बोली के सूल प्रदेश, पंजाबी प्रदेश, राजस्थानी, गुजराती, मराठी भाषी प्रदेशों को उस वें में विभक्त करना होगा, जहां स्वरमध्य 'ण' सुरक्षित रहा है । कहने का तात्पयं यह है कि गढ़वाली ध्वनि-संघटना ब्रज, कन्नौजी या बुन्देली की श्रपेक्षा राजस्थानी-गुजराती-मराठी के श्रधिक समीप है, इसे कोई इन्कार नहीं करेगा । राजस्थानी भाषा से गढ़वाली में एक महत्वपुण समानता यह पाई जाती है कि यहां पदमध्य महाप्राण ध्वनि की प्राराता प्राय: पदादि स्पद्शें व्यंजन में अन्तभरुक्त हो जाती है । यदि पदादि में सघोष श्रल्प प्राण ध्वनि है, तो उसे महाप्राण न बनाते हुए भी पदमध्य महाप्राण ध्वनि की प्राणता का लोप देखा जाता है । इस प्रक्रिया से ही सम्बद्ध वह प्रक्रिया है, जहां पदमध्य 'ह' का लोप कर उसके स्थान पर श्राइवसित या कण्ठनालिक स्पद्दें का उच्चारण पाया जौता है । पूर्वी राजस्थानी से गढ़वाली की एक श्न्य समानता पदान्त भ्रो ध्वनि को सानुनासिक उच्चारण है। पूर्वी राजस्थानी में




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