झील के उस पार | jheel Ke Uspar

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jheel Ke Uspar by गुलशन नंदा - Gulshan Nanda

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्राया और बोला--+नहीं नील यह भूठ है तुम अधी नही हो भगवान एक भोलीभाली लड़की से इतना भयकर मज़ाक नहीं कर सकता 1 यह मच है वावू मैं अधी हूं 1 लेकिन भ्रभी तो तुम इस घाटी की सुन्दरता सूरज की सुनहरी किरणों भर ते रनी मछलियों के खेल-कूद का वर्णन कर रही थी । बे नो मन की आें हैं जो सव बुछ देख लेनी हैं जानते हो बाबू जब तुमने चित्र बनाने के लिए मुमसे पूछा तय मेरे सन ने बया देखा ? सबया 2 यही कि तुम बाहरी हो श्रौर दिल के अच्छे हो तभी तो मैं इनवार न कर सकी | नीलू की वानो में छिपी पीड़ा को लक्ष्य करते हो समीर तड़प उठा । उसका हृदय उस लाचार ग्रौर भोली वाला के लिए हाहा- कार कर उठा किस्तु इस ग्रजनवी लडकी का दर्द वांटने का उसे क्या अधिकार है बह सोचने लगा । नीलू तेज़ी से मुडकर एक पगडड़ी पर हो ली। समीर उसे चीड के पेड़ों के वीच से जाते देखता रहा । चह शीघ्ना मे भील के उस पार श्रपनी बस्ती की श्रोर जा रही थी। वह उसे रोकना चाहकर भी न रोक सका और दूर पगड़ंडी पर जब अदृदय हो गई तय समीर ने जेव से रूमाल निकालकर अपनी भोगी श्राखों पर रख लिया। फिर वह बड़ी देर तक गुम सुम खड़ा कुछ सोचता रहा । ईइवर भी विततना निर्देयी है जो सब कुछ देकर भी कुछ छीन लेना है 1 प्रचानक ही समीर ने एक लम्वी सास ली और उसे कदम उस पगइंडी की ओर मु गए । योड़ी दूर पर वह फूल पड़ा हुप्रा था जो उसने नीत्दू वे वालो से लगाया थां। उसने भुककर वह फूल उठा लिया श्रौर श्राकाश के वदलते हुए रगो को देखमें लगा । फिर जैसे हो उसने वह फूल भ्रपने होठों से लगाया नीलू वी भोनी सुरम उसकी आसखों के सामने घूम गई श्छ 585




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