हिलने लगी धरती | Hilne Lagii Dharti

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Hilne Lagii Dharti by श्रीनिवास वत्स - Srinivas Vats

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मातनपू शांता ने सोचा यह तो और भी अच्छा है । उपचार लम्बा चामेग तो ज्यादा दिन आराम करूँगी और स्वादिष्ट भोजन भी भिलेगा बोली- मैं दवा हर रोज खा लूँगी। आप इलाज शुरू करा व वैद्य सुबह घूमने जाते तो दो-चार पेड़ों के कड़न्रे पते तोड़ लाते । उन्हीं का रस निकालकर शांता को पिला देते । दवा के सा उसे बढ़िया स्वादिष्ट भोजन भी दिया जाता | तीन दिन बीत गए । चौथे दिन धनिकलाल ने शॉता से कहा-- तुम्हारी दवा तो बहुत महँगी है। तीन दिन में सारे पैसे खर्च हो गए। मैं अब और इतना महँगा इलाज नहीं करा सकना। शांता बोली-- तुम्हें पहले सोचना था। अब बीच में दवा बंद करने से तो मैं मर जाऊँगी । धनिकलाल ने कहा- अब तो एक ही उपाय है। सर का सारा सामान गिरवी रखना पड़ेगा। अगले दिन धनिकलाल घर के सारे बिस्तर और पलंग उठाकर चंदनदास के घर रख आया। उस रात शांता को जमीन पर सोना पड़ा। पर क्या करती इलाज तो बीच में बंद हो नहीं सकता था । दो दिन बाद धमिकलाल ने कहा- आज तो रसोई के साऐे बरतन भी बिक गए। भूखों मरना पड़ेगा। अब और इलाज कैसें कराएँगे? शांता को डर था कहीं दवा बंद होने से उसकी मृत्यु न हो जाए। उसने हाथ जोड़कर पति से कहा- हम रूखी-सुखी खा लेंगे। जैसे भी हो दो माह तक दवा का प्रबंध करना ही होगा। पर अभी तो पंद्रह दिन ही गुजरे हैं । मैं और कुछ नहीं कर सकता। धनिकलाल ने गुस्से से कहा । अब तो शांता बुरी तरह डर गई। उसे अपनी मृत्यु स्पष्ट नजर आने लगी




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