जैन अभिलेख - परिशीलन | Jain Abhilekh Prishilan

Jain Abhilekh Prishilan  by कस्तूरचन्द्र जैन - Kasturchand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8 नेमिनाथ का, छतरपुर के संवत्‌ 1205 के लेख में अरिष्टनेमि का, ईसवी 326 के उदययिरी लेख में पाइवनाथ का और अहार, के सबत्‌ 1206, 1207, 1216, 1237 के प्रतिमा लेखों में वद्ध मान, वीरवद्ध मान, वीरनाथ का उनकी प्रतिमाएँ निर्माण कराकर उनकी था कराने, उनके मन्दिर बनवाने के रूप नामोल्लेख किया गया है । इन लेखों की भाषा-शेली भाषादयास्त्र की दृष्टि से बड़ महत्व की है । प्राचीन लेखों में सरेफ वर्ण द्वित्व हुए हैं । का व्यवहार जिन लेखों में नहीं हुआ है वहां दा के स्थान में स का प्रयोग हुआ है । ख के लिए ब का प्रयोग भी दिखाई देता है। अनुनासिकों के स्थान में अनुस्बार मिलता है । (2) राजनेतिक अभिलेख थे लेख सांस्कृतिक अभिलेखों के समान छोटे नहीं होते । ये सामान्य प्रस्तर-खण्डों पर प्रशस्तियों के रूप में उत्कीण मिले हैं । इनमें दासकीय अनुदान का उल्लेख रहता है । राजाओं की वश- परम्परा, उनकी उल्लेखनीय जीवन-घटनाएँ, प्रमुख दासक का जन धर्म के लिए किया गया योगदान दर्शाया गया है । इनका स्वरूप शासन-पत्रों के समान होता हैं। यें राजा या उसके किसी अधिकारी द्वारा लिखायें जाते हैं । राजाओं से सम्बन्धित रहने के कारण ऐपे लेखों को राजनतिक लेख कहा गया है । उत्तर भारत में ऐसे लेख मन्दिरों की भित्तियों में स्वचित या मन्दिर ध्वस्त हो जाने पर ध्वस्त मन्दिरों के समीप प्राप्त हुए हैं। दूबकुण्ड और भीमपुर जेन-प्रशस्ति लेख ऐसे ही उल्लेखनीय लख हैं । स्व, डॉ. गुलाबचन्द चौधरी ने माणिकचन्द दि० जेन ग्रन्थमाला से प्रकाशित जेन दिलालेख संग्रह भाग 2-3 का अध्ययन करके उनकी विषय-वस्तु के सम्बन्ध में अपनी प्रस्तावना में लिखा है कि लोग अपने कल्याण के लिए, माता-पिता, भाई-बहिन आदि के कल्याण के लिए, गुरु के स्मृत्यथें, राजा, महामण्डलेरवर आदि के सम्मानार्थ मस्दिर या मूर्ति का निर्माण कराते थे । उनकी सरस्मत,




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