पूजातत्व | Pooja Tataw

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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€£ का उद्देश्य है। वह सत्य-प्रतिष्ठा द्वारा सत्र आत्मद्शन प्राण-प्रतिष्ठा द्वारा सबत्र मगवत्‌त्लीला-रस श्रास्वादन तथा श्रानन्द-प्रतिष्ठा दर ब्यानन्द-रस में विभोर तर समाहित रहता है श्र अपने विभोर श्र समाहित होकर सबको यह श्ानन्द-रस शस्तराद करने की योग्यता प्रदान करने की चेष्टा करता है | प्रकृत साधक की दृष्टि में संसार भगवान का श्रानन्द्धाम है और जीव वेष घारण किया हुआ शिव श्रर्थात्‌ भगवान की जीवन्त मूर्ति है । मालूम पड़ता है कि जेसे भगवान हमारे ्रहणयोग्य होने के लिए आात्मीय स्वजनों के रूप में हमारे सामने उपस्थित हुए हैं । विश्वनाथ घति--शिव राम व कृष्ण सत्री--पावंती सीता ब॒ राधा लड़का-- बालगोपाल लड़की--कन्या भगवती रूप में दिखाई देते हैं। सबके भीतर भगवान का ध्यान और दर्शन लाभ करने के लिए वह प्राथना करता है । सबको सेवा उसकी पूजा में परिणत हो जाती है जीवन मघुमय काय साघनमय झऔर निद्रा समाधि हो जाती है । पूजा --श्रेष्ठ व्यक्ति अथवा तत्व के सानिध्य से लाभ करना । उपासना --उपास्य के सान्निध्य से उपास्य के भाव से परिभावित होना जेसे झ्राग के सान्निथ्य से देह गर्म हो जाती है और बरफ़ के साचिध्य से देह शीतल हो जाती है । किसो श्रादश जीवन झथवा तच्व को सामने रखकर घारणा ध्यान झोर समाधि द्वारा उसमें तन्मय हो जाना पूजा का उद्देश्य है । जो किसी श्रादश चरित्र को अवलम्बन कर श्रपने जीवन को आदश-स्थानीय बनाने की चेषटा करते हैं वे चाहे मानें या न मानें उस ब्रादश चरित्र की पूजा करते हैं । मुक्तिहित्वाइन्य थाख्यातिं स्व-स्वरूपेणावस्थिति ----इमारे शास्त्र ने सिंद्धि को स्वरूपोपलब्धि श्और सुक्ति को श्न्यथा-ख्यातिरदिति श्पने स्वरूप में अवस्थिति कहा है । हार ्रपने गले में है लेकिन अपने गले की तरफ़ न देखकर हम हार ढूँढ़ने में लगे हैं । कस्तूरी सर की नामि




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