माधवराव सप्रे की कहानियां | Madhavrao Sapre Ki Kahaniya

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Madhavrao Sapre Ki Kahaniya by मुंशी देवीप्रसाद - Munshi Deviprasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ कर यह कहना शुरू कर दिया कि अपने घर चल वहीं रोटी खाउँगी उसके लिए समस्या बन गई । वह अर सोचती है कि उस झोंपड़ी की टोकरी भर मिट्टी से यदि चूल्ह्मा तैयार कर रोटी पकाऊँगी तो शायद बच्ची रोटी खाने लगे। श्रीमान्‌ की आज्ञा मिलने पर वह जब उस झोंपड़ी में जाती है तो सारी भूली स्मृतियाँ पुनः जाग जाती हैं और उसकी भाँखों से आँसुओं की घार लग जाती है । पाठक भी करुण भाव से उत्तेजित हो जाते हैं। संवेदना को कोमल आधार मिल जाता है। अपनी टोकरी को जब वहू झ्ॉपडी की मिट्टी से भर लेती है तब वह महाराज से विनय करती है कि जरा वह हाथ लगाकर उस टोकरी भर माटी को अपने निबंल सिर पर रख लेने में मदद करें । पाठकों का सारा ध्यान अब उस विधवा की टोकरो पर केन्द्रित हो जाता है । सहानुभूति के साथ संवेदना को गति मिलती है और पाठक देखते हैं कि वह उस झोंपड़ी की मिट्टी-भरी टोकरी अपने स्थान से ऊँची नहीं उठती । सह्दय की कल्पना को समझने में देर नहीं भावुकत्ता के इस क्षण में विधवा के ये शब्द सुनाई पड़ते हैं-- महा राज नाराज न हों आपसे तो एक टोकरी भर माटी उठाई नहीं जाती और इस झोंपड़ो में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी है इसका भार आप जनम भर क्यों कर उठा सकेंगे ? आप ही इस बात का विचार कीजिए । चरित्र की भंगिमा को अवकाश मिला और जमींदार के हृदय में सत्त्वोद्रेक जागा। कहानी को पुनः गति मिली । शीषंक एक टोकरी भर सिटटी के भार . को सेर्द्रिय बोध मिला और कहानी का अन्त सामने आ गया । कृत्तकर्मं का पश्चात्ताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपडी वापस दे दी । विधवा का अथंपुर्ण मौन एक टोकरी भर सिटटी के सुक्ष्म इंगिति-संवाद से कहीं अधिक मुखर है । कहानी के रचनारविधान में ऐसा कौशल इसके पुर्वे हमें तो दिखाई नहीं पड़ा । संवेदनाशील भावना का समुदय तथा मानवीय दायित्व को रूपायित करने की परिकल्पना स्वर्गीय श्री माधवराव सप्रे की इसी कहानी में मिलती है ।




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