हिंदी शब्द सागर | Hindi Shabd Sagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २ ज्यों ज्यों आर्यगण अपने आदिम स्थान से फेलने लगें और तत्कालीन अनायों से संपके बढ़ाने लगें, त्यो व्यो कक रक्त लि लव वन कि कक करना नहीं है, हमें तो केवल इस बांत पर विचार करना है कि हमारी हिंदी भाषा का केसे विकास हुआ है। अतपर्व पहले हम भारतीय माषाओं का प्राचीन अवस्था से लेकर अब तक का संक्षिप्त इतिहास देकर तब मुख्य विषय पर आवंगे । प्राचीन आयों की भाषा का वास्तविक रूप क्या था, इसका पता' लगना बहुत कठिन है। उस प्राचीन भाषा की कोई पुस्तक या लेख आदि नहीं प्राचीन आायों की मिलते । आर्य जाति की सबसे प्राचीन सतत पुस्तक, जो इस समय प्राप्त है, ऋग्वेद है। इसकी ऋचाओं की रचना भिन्न भिन्न समयों और भिन्न भिन्न स्थानों में हुई हे। किसी में कंघार में बसनेवाले आर्य-खमूह के राजा दिवोदास का उल्लेख है, तो किसी में सिंघु नद के किनारे बसे इुए आर्यों के राजा सुदास का । अतण्व वेदों में दिवोदास तथा सुदास के समयो के बने डुए मंत्रों का समावेश है। साथ ही कुछ मंत्र कंघार में रचे गए, कुछ सिंघु के किनारे, ओर कुछ यमुना-तटों पर । पीछे से जब सब मंत्रों का संपादन करके उनका क्रम लगाया गया, तब रचना- काल ओर रचना-स्थान का ध्यान रखकर यह काय नहीं किया गया । यदि उस समय इन. दोनों बातो का ध्यान रखा जाता तो हम अत्यंत सुगमता से प्राचीन- तम भाषा का नमूना उपस्थित कर सकते । फिर भी ध्यान देने से मंत्रों की भाषा में विभेद देख पड़ता है। इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन समय में जब आये सप्त- सिंघु प्रदेश में थे; तभी उनकी. बोल चाल की भाषा ने कुछ कुछ साहित्यिक रूप घारण कर लिया था, पर तो भी उसमें अनेक भेद बने रहे । वेदों के संपादन-काल _ में मंत्रों का भाषा-विभेद बहुत कुछ दूर किया गया । तिस पर भी यह स्पष्ट है कि वेदों की भाषा' पर उस समय की कुछ प्रांतीय अथवा देश-भाषाओं का पूरा पूरा प्रभाव पड़ा था । केवल अनेक व्यक्तियो के अनेक प्रकार के उच्चारणों के कारण ही यह भेद नहीं हुआ था, अपितु देशी या अन्यान्य [शब्दों का संमिश्रण भी इसका एक प्रधान कारण था। .. .................. 2 भाषा भी विशुद्ध न रह कर मिश्रित होने लगी । विभिन्न स्थानों के आर्य विभिन्न प्रकार के प्रयोग काम में लाते थे। कोई चुद्रक ( छोटा ) कहता था तो कोई जुन्नक । “तुम दोनों” के लिए कोई 'युवा' बोलते थे, कोई “युवं” और कोई केवल “वा” । पश्चात्‌ पश्धा, युष्मासु युष्मे, देवाः देवास; श्रवणा श्रोणा, अवद्योतयति अवज्योतयति, देवेः आदि आदि अनेक रूप बोले जाते थे। कुछ लोग विभक्ति न लगाकर केवल प्रातिपदिक का ही प्रयोग कर डालते थे ( यथा परमे व्योमन्‌) तो कुछ शब्द के ही अंग संग करने पर थे। “आत्मना” का “त्मना' इसका अच्छा निद्शेन हे । कोई व्यक्ति किसी अक्षर को पक रूप में बोलता तो दूसरा दूसरे रूप में । एक “ड” सिन्न भिन्न स्थलों में ल, व्ठ, ढ, हद, सभी बोला जाता। या ही अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। इस प्रकार जब विषमता उत्पन्न हुई और एक स्थल के आयाँ को अन्य स्थल के अधिवासी अपने ही सजातियाँ की बोली सखमभने में कठिनता होने लगी, तब उन लोगों ने मिलकर अपनी भाषा में व्यवस्था करने का उद्योग किया । प्रांतीयता का मोह छोड़कर सार्वदेशिक, सर्वबो ध्य और अधिक प्रचलित शब्द ही टकसाली माने गए । भाषा प्रादेशिक से राष्ट्रीय बन गई। अपनी अपनी डफली अपना अपना राग बंद हुआ । . खभी कम से कम साहित्यिक और सावंजनिक व्यवहार में दकसाली भाषा का प्रयोग करने लगे, इसलिये भाषा भी मँँज सँवरकर संस्कत ( न्शुद्ध ) हो गई। जो स्थान आजकल हमारी हिंदी को प्राप्त है, एवं प्राकत-काल में जो महाराष्ट्री को प्राप्त था, वही स्थान उस समय संस्कृत. का था! आर्याधिष्टित सभी प्रदेशों में यह बोली और . समभी जाती थी । जो लोग इसे नहीं बोल सकते थे, वे समभ अवश्य लेते थे । आज भी खड़ी बोली बोलनेवाले नागरिक और अपनी ठेठ हिंदी का ठाठ दिखानेवाले देहाती के संवाद में वही झुटपुरी झलक रहती है। अतः जो लोग . यह कहते हैं कि संस्कृत कभी बोलचाठ की भाषा थी ही. नहीं, वह तो केवल ब्राह्मणों की गढ़ी, यज्ञ में बोली जानेवाली.




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