गीता की सम्पत्ति और श्रद्धा | Gita Ki Sampati Aur Sarddha

Gita Ki Sampati Aur Sarddha by स्वामी रामसुखदास - Swami Ramsukhdas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(३) रहेगी । अत जवतक दैवी-सम्पत्तिके लिये उद्योग करता रहेगा तबतक भाधुरो-सम्पत्ति ड़टेगी नहीं । कन्तमें वह हार मान लेता है. अथवा उसका उत्साद कम हो जाता हे उसका प्रपत्त मद हो जाता हें और मान लेगा है कि यह मेरे वशझी बात नहीं है । साथफसी ऐसी दशा क्यों होती है कारणकी उसने भअमीतक यह जाना नहीं फि भासुरी-प्रम्पत्ति मेरेें व्हैते आयी आसुरी-सम्पत्तिका कारण है--नाशबानका सब्न। इसका सन्ठ जव्तक रहेगा तबतक आपुरी-सम्पत्ति रहेगी ही | वह नादाबावके सह्ओ नहीं छोड़ता तो आसुरी-सम्पत्ति उसे नहीं छोड़तो अर्थात्‌ शभासुरी- सम्पत्तिसे यह. सर्पथा रहित नहीं हो सस्ता । इसडिये यदि घह्द दैवी-सम्पत्तिको छाना चाहे तो नाशयान्‌ जड़के स्का त्याग कर दे । नाशवानूके सट्का स्पाग फरनेपर देवी सम्पत्ति खत प्रकट होगी क्योकि परमात्माका अश होनेसे परमात्माकी सम्पत्ति उसमें स्वत तिद् है रर्तव्परूपसे उपार्गित नहीं फरनी हें. । इसमें एफ और मार्मिक बात हे. । दैवी-सम्पत्तिके गुग ख़त - स्वाभाविक रहते हैं । इहें कोई छोड़ नहीं सकता । इसका पता कैसे ढगे ४ जैसे कोई शिचार ऊरे फि मैं सत्प ही बोइगा तो बह उन्रभर सब त्रोल सफल दै । परत कोई म्चार करे कि मैं झूठ ही बोदेंगा तो वह आठ पहर भी झूठ नहीं बोल सवा सत्य ही बोढनेका विचार होनेपर वह दु ख॒ मोम सफता हैं पर झूठ बोलनेके छिये वाव्य नहीं हो सझफता | परतु झूठ ही बोदगा-- ऐसा विचार होनेपर तो खाना-पीना वोलना-चढनातक उसके छिये




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