रेवातट पृथ्वीराज रासो | Rewatat prithviraj-raso
श्रेणी : आलोचनात्मक / Critique, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
58.55 MB
कुल पष्ठ :
471
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ सारा नहीं गया केवल बंदी बना लिया गया था श्ौर इसीसे उसके नाम का उपयोग हो सका | अनुमान है कि याल्दुज़ के ग़ज़नी वाले सिक्कों की भाँति ये सिक्के भी गोरी की मृत्यु के बाद उसके सम्मानाथ ढालें गये होंगे | परमेश्वरीलाल गुप्र ने ना० प्र० प० वर्ष ३७ अझ के २-३ सें० २००६ वि० पृ० २७०८-३३ में लिखा है कि इस. प्रकार का सिक्का केवल एक ही शात है और यह टकसाल के अधिकारियों की भूल से छप गया है अस्त दवीसिंह की यह कल्पना कि प्रथ्वीराज तराईं के युद्ध में बंदी बना लिये गये थे ग्राह्म नहीं जान पड़ती । सिका एक ही दे श्र भूल से छुप गया है --यह प्रमाण संगत नहीं प्रतीत होता । देवीरसिंह का निणय रासो की बात का प्रतिपादन करता है कि तराई वाले युद्ध में प्रैथ्वीराज वंदी बनाये गये थे । रासो के अनुसार गोरी को चौदह बार वंदी बनाने वाले प्थ्वीराज उससे उन्नीसवें युद्ध में स्वयं बंदी हुए श्र ग़जनी में चंद की स्रह्दायता से शब्दवंधी बाण द्वारा सुल्तान को उसके दरबार में मार कर स्वयं श्रात्मघात करके मृत्यु को प्राप्त हुए। प्रथ्वीराज प्रबंध में वर्णित है कि सुलतान को एवं बार ७ बद्धवा बद्धवा मुक्त करदश्च कृत प्रथ्वीराज अर तिम युद्ध में अपने मंत्री प्रतापसिंह के घड़यंत्र के कारण बंदी किये गये श्रौर पुन उसी के धड़यंत्र से उन्होंने सुलतान की लोह-मूर्ति पर बाण मारा जिसके फलस्वरूप उन्हें पत्थरों से भरे गढ़ें में ढकेल कर मार डाला गया पुरातन प्रबंध संग्रह ० घ६-७ । साहित्यिक भावनाश्रों से आदत रासो के वृत्तांत में सत्य का अंश अवश्य ही युम्फित है ऐसा अनुमान करना अनुचित न होगा | सन् १६३६ ई० में बम्बई से एक सिंह गजन हुआ पुरातन प्रबंध संग्रह प्रास्ताबिक वक्तव्य ० ८-१० । जेन-मंथागारों में सुरक्षित प्रथ्वीराज और जयचंद्र के संस्कृत प्रबंधों में झ्राये चंद बलहिउ चंद वरदाई के झपभ्र श छुंदों के आधार पर जिनमें से तीन सभा बाते रासों में किंचित् विकृत रूप में वतंमान हैं विश्वविख्यात वयोंबद्ध साहित्यकार सुनिराज जिनविजय ने घोषणा की है कि प्थ्वीराज के कवि चंद वरदाई ने श्रपनी मूल रचना अपग्रेश में की थी । इस गजन से स्तम्मित होकर चंद वरदाई शक के अस्तित्व को झस्वीकार कर दने वाले इतिहासकार चुप हो गये गुम-सुम खोये हुए से किसी नवीन तक॑ की श्राशा में शिलालेखों और ताम्रपत्रों की जाँच में संलपन । ख़ेरियत ही हुई कि शिलालेख मिल गये नहीं तो कौन जानता है प्रथ्वीराज जयचन्द्र और भीमदेव का व्यक्तित्व भी इन इतिहासकारों की प्रौढ़ रेखनियों ने ख़तरे में डाल दिया होता | ये कभी कभी भूल जाते हैं
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