शरत् - साहित्य भाग - ७ | Sharat - Sahitya Bhag - 7

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Sharat - Sahitya Bhag - 7 by धन्यकुमार जैन - Dhanykumar Jainश्री कान्त - Shri Kant

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धन्यकुमार जैन 'सुधेश '-Dhanyakumar Jain 'Sudhesh'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दतीय पे श्श हैं उनसे में और कया कहूँ 1 भीतर दी भीतर एक लम्बी संस लेकर मैं मौन हो रददा । ऐसी सेनिकी-सी जगह छोड़कर क्यों उस मदभूमिके बीच निर्बान्थव नीच आदमियोंकि देदमें राजरूदषमी मुझे लिये जा रद्दी है सो न तो उससे कहा जा सकता है और न समझाया ही जा सकता है । आखिर मैंने कद्दा शायद मेरी बीमारीकी वजहसे दी जाना पढ़ रहा है रतन । यहाँ रहनेसे आराम दोनेकी कम आशा है सभी डाक्टर यहीं डर दिखा रहे हैं । रतनने कहा छेकिन बीमारी क्या यहँँ और किसीको होती ही नहीं बाबूजी ? आराम होनेके लिए क्या उन सबको उस गगामाटीमें ही जाना पढ़ता है सन ही मन कहा मादूम नहीं उन सबको किस माटीमें जाना पढ़ता है । हो सकता है कि उनकी बीसाशि सीधी हो हो सकता दै कि उन्हें साधारण मिट्टीमें दी आराम पढ़ जाता हो । मगर दम लोगोंकी व्याधि सीधी भी नहीं है और साधारण भी नहीं इसके लिए शायद उसी गगामाटीकी दी सख्त जरूरत है । रतन कहने ठगा साजीके खर्चका हिसाब किताब भी तो हमारी किसीकी समझें नहीं आता । वहीं न तो घर-द्वार दी है न और कुछ । एक युमाइता है उसके पास दो हज़ार रुपये भेजे गये हैं एक सिट्टीका मकान बनानेके लिए देखिए तो सही बाबूजी ये सब कैसे ऊँटपर्टाग काम हैं । नौकर हैं सो हम लोग जैसे कोई आदमी ही नहीं हैं उसके क्षाम और नाराजगीको देखते हुए मैंने कहा तुम वहाँ न जाओ तो कया है रतन जबरदस्ती तो तुम्हें कोई कहीं ले नहीं जा सकता ? मेरी बातसे रतनको कोई सान्त्वना नहीं मिली । बोला माजी ले जा सकती हैं । क्या जाने क्या जादू-मन्न जानती हैं वे अगर कहूँ ककि तुम लोगेको जमराजंके घर जाना होगा तो इतने आदमियेंमिं हमर्मेंस किसीकी हिम्मत नहीं कि कह दे ना । यह कहकर वह मुँह भारी करके चला गया । बात तो रतन गुस्सेसे ही कद्द गया था पर वह मुझे मानो अकस्मात्‌ एक नये तथ्यका सवाद दे गया । सिर्फ मेरी दी नहीं सभीकी यह एक ही दशा है । उस जादू मन्नकी बात ही सोचने लगा । मन्न-तन्नपर सचमुच ही मेरा विश्वास है सो बात नहीं परन्तु घर-भरके लोगोमिं किसीरमें भी जो इतनी-सी दक्ति नददीं कि यमराजके




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