जम्मोजी विश्नोई सम्प्रदाय और साहित्य दुसरा भाग | Jaambho Ji Vishnoi Sampraday Aur Sahitya Bhag 2

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Jaambho Ji Vishnoi Sampraday Aur Sahitya Bhag 2 by हीरालाल माहेश्वरी - Hiralal Maheshwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्याय ८ विष्णोई साहित्य १ तेजोजी चारण (विक्रम सवत १४८०-१५७५) इनका जम लाडणू के पास क्सूम्वी नामक गाव मे सामोर शाखा के चारण जतसी के घर हुआ था। इनके छोटे भाई का नाम माडण था । मोहिलो झौर सामौरो का सम्बष वहत प्राघीन काल से, जब से मोहिला ने छापर-द्रोणपुर लिया, चला भरा रहा था। ये ही उनके पोक्पात वारहट घे। जतसी का विरुद दादा था प्रौर वे भ्रपने समय से ब्हूत स्याति प्राप्त व्यवित थे । राणा माणक्राव मोहिल का उन पर कहा हुआ यह दोहा प्रसिद्ध है -- सिरे मोड सामोरडा, ज़्यारो होड न किणहू होय। चक्व आख चारणा, जत फसू वी जाय ॥ माणक्राव के दो प्रुथ्न ें-सावतसी शोर सागा । सावतसी क॑ पुत्र राणा श्रजीत मोहिल जो छापर-द्रोणपुर के चासक थे, तेजोजो को वहुत मानते थे । कहा जाता है कि भजीते का विवाह जोधपुर के राठौड राव जांघाजी की पुत्री राजाबाई के साथ इहोंने ही तय करवाया था । জন श्रजीत जोधपुर के राठौडा द्वारा मार डाछे गए तो इहाने उनको ঘিননা- रते हुए यह दोहा कहा था +- बेसासो संति राठवड़, हुवेय घ॒णां हराम। दातरिया घी हेत पितु, किसा सराहा काम? झजीत के मारे जाते के कारणो के सम्वघ मे दो मत हैं। नशसी * और भोमाजी 3 के भ्नुसार राव जोधाजी ने भोहिलवाटी के लोम के' कारण भ्रजीत को छल से जोधपुर मे मारना चाहा था, किन्तु वहा योजना सफ्ल न होने पर वाद मे उनका पीछा करके युद्ध क्या जिसम वे मारे गए। रेउजी5 और शझ्ासोपाजी* के अनुसार उनवी उद्धतता के कारण हीः राठौडो ने उनका बध क्रिया । तेजोजी के इम दोहे से नएसी के कथन क पुष्टि होती है भौरः इस कारण इसका ऐतिहासिक महत्त्व भी है । लादणु के पास दुजार गाव म श्रजीत ने वीर- मति पराप्त कौ थी । वहा श्रव उनङौ एक छतरी बनी हुई है तथा वे “दुजार के जु कार” या मरू ' नाम से प्रनिद्ध ह 1 लोग मरू ^ को मानते मी है 1 तेजोजी ने भ्रजीत कौ ृ्यु षर प्रत्यात मासिक मरसिये कहे थे | इनसे मोहिलो झौर सामौरो के पुरातन सम्ब-घो कामौ पता चलता है। चार दोहे ये हैं -- १-नणसी की स्यात, माग ३, पृष्ठ १५८, जोधपुर, सन १०६४१ २-बही, पृष्ठ १५८-१६६ तथा “स्यात”, माय -१. पृष्ठ १६०-६६, कानी ! ३-जोधपुर राज्य का इतिहास, प्रथम ण्ड, पृष्ठ २४४ सन १९३८1 ~ मारवाड का इरतिंहास, भयम माग, पृष्ठ ९७, सन १६३८ 1 ५-मारवाड का सक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ १९० 1




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