ये घर ये लोग | Ye Ghar Ye Log

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Ye Ghar Ye Log by जितेन्द्र - Jitendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २०. ) आवाज दिन-दिन पुराने पड़ने वाले कलरकों की सूखी सहमी श्र सम- भदार श्राक्ज नये भरती होने वाले क्लरकों की लड़ाकू श्रावाज सुपरिन्टे- श्डेटस श्र श्रसिस्टेटट्स की चायुक जैसी पैनी टुबली लम्बी श्रावाज जिसकी गाँठें ब्राँच-ऑाँफिसर डी० ए० जी० श्रोर ए.० जी के ्यूरो- क्रेटिक दिमाग की युठली से बधती थी । पोस्ट-श्राडिट के घदामी सफेद शिडीउल श्रौर वाउचसं--रद्दी पुराने और उधड़े हुए कागज-- फश पर श्रालमारियों के खानों-खानों में ऊपर-नीचे टेबुल पर टेबल की ड्रारों में कुर्सी के नीचे पाँव के पास -ऐसे भरे दुए कि फेँकी हुई सांस लौटकर फिर नथनों में घुस जाय 1 धड़ तक वादामी सफेद श्र मटमेले शिडीउल श्र वाउचस के तालाब में ड्रवे हुए कुर्सियों से ऊपर निकले हुये बावुश्धों के चेहरे जिनपर हर साँस के टूटकर वाउचस श्रोर शिडीउल हो जाने का डर रिस्क से दूर भागने की कायरता रोजमरा की वाहर-भीतर की घुटनों की मंडलाती हुई छाया फिर भी पहलो तारीग्व के ख्याल का इन सबके बीच संतोष का एक छोटा गद्दा इन सब पर लिपटी हुई पीली मलगुजा घिनीनी संतोष की भिलली । मुक्त मेरी जगद बता दी गई थी श्रोर मैं त्पनी कुर्सी में इस तरह सिमट कर ब्रेठ गया. जैसे कहीं सेक्शन के 050-घप01 के चिथड़े ऑंक सड़ी अ्रंतड़ियां की तरह फल हुए कागज हर उ्ावाज की मिन्नता सुपरि- रिन्टेडडेट की चायुक जैसी द्रावाज मुकके छू न जाय । सिगरेट सुलगाई शोर वातावरण से पने को अलग करने की चष्टा में श्रम श्र संघष से इलथ होकर कुर्मी में ड्रबने लगा । सों के छागल का छुन-छन बिद्दाग के गीतों सा पल-पल दूर होता जा रहा था । सरसों आर मटर के पीले शरीर कासनी फूल फूलने लगे थे । जाड़ें की सुबह से लिपटी हुई ठण्ढ़क पूरब के भरोखे से फटने वाली पोली-पीली घूप ते मिलकर रेशमी शाल की तरह फिजां से लिपटती जा रही थी । बड़ी जोर से पटक कर साइकिल रखने की आ्रावाज कानों




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