पातन्जल योगदर्शन | Patanjal Yogdarshan

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भगीरथ मिश्र - Bhagirath Mishr

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व्रज किशोर मिश्र - Vraj Kishor Mishr

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हरिकृष्ण अवस्थी - Harikrishn Avasthi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ८ ) संप्रदाय के थे । महाभारत के सांख्ययोग-संबंधी कई एक संवादों का यहीं सारभूत मम है। वस्तुत मोच्तघर्म का सांख्य तत्वकांड तथा योग साधनकांड है । हिरण्यगर्भों योगस्य वक्ता नान्य पुरातन इत्यादि वाक्यों से जान पड़ता है कि योग का झ्ादिवक्ता हिरण्यगमंदेव है । हिरण्यगर्भदेव ने किसी स्वाध्यायशील ऋषि को योगविद्या का प्रकाश प्रदान किया था उसी से संसार में योगविद्या का प्रचार हुआआ श्रथवा हिरश्यगमं शब्द कपिल ऋषि के लिये भी प्रयुक्त हुआ यह कह सकते हैं । यमाहुः कपिल सांख्या परमधि प्रजापतिमू हिंरण्यगर्भो भगवानेषच्छन्दसि सुष्ट्त (शान्ति पं) इत्यादि भारत वाक्यों से जान पड़ता है कि कपिल ऋषि प्रजापति हैं. तथा हिरण्यग्भ नाम से उनकी स्तुति की जाती थी । तर भी कपिल श्ऋषि के प्रादुर्भाव के विपय में दो प्रकार के मत हैं । एक मत ( सांख्य- मत ) के आधार पर उन्होंने पूर्वजन्म के उत्तम संस्कारबल से ज्ञानवेराप्यादि-संपन्‍न होकर जन्म लिया श्र श्रपनी प्रतिभा के बल से परम पद को प्राप्त कर संसार में प्रचार किया था । दुसरे मत (योगमत) के श्रनुसार उन्होंने रैश्वर (सयुण ईश्वर या हिरिण्यगर्भ) से ज्ञाम प्राप्त किया था | ऋषि प्रसतं कपिल यस्तमग्रे ज्ञाने विर्भत्ति इत्यादि श्वेताश्वतर उपसिपद के वाक्य में यह मत प्रकट हुआ है । श्वेताश्वतर उपनिपद्‌ प्राचीन योग-संप्रदाय का ग्रन्थ है । फलत कपिल के पहिले जेसे आत्मज्ञान का प्रचार था वंसे योग का भी । कपिल ने नियु ण॒ पुरुषविद्या तथा कंवल्यप्रापक योग का प्रवर्तन किया । उन्होंने अपने पूर्व संस्कार से ज्ञान-वेरागय-सम्प्न होकर जन्मग्रहण किया था श्र साधनबल से ईश्व रानुग्रह अथवा आत्मशक्ति के द्वारा परम पद-लाभ करके उसका प्रकाश किया था । उसी से प्रचलित सांख्य- योग का प्रवर्तन हुआ है । योगमूत्र प्रचलित पडद्शनों में सबसे प्राचीन है । उसमें किसी दार्शनिक मत का उल्लेख या खंडन नहीं है | क्रेवल त्रपने मत के सिद्धान्तों को प्रमाणित करने के लिए शंकात्यों का समाधान किया गया है । उदाहरणाथ न तत्स्वाभासं दृष्यत्वात इस सूत्र में जो भी स्वाभाविक शंका उठ सकती है उसी का निराकरण है | ऐसी शंका दसरे किसी संप्रदाय का मत नहीं भी हो सकती है । भाष्यकार ने सूत्र के तात्पयं के द्वारा श्नेक स्थानों पर बौद्धमत का परि- हार किया है किन्तु सूत्रकार ने केवल स्वाभाविक न्यायदोप का ही निराकरण मात्र किया है । कहीं पर भी उन्होंने बौद्धादि मतों का निराकरण नहीं किया | केवल न चैकचित्ततंत्रं वस्तु तदप्रमाणकं तदा कि स्यात्‌ इस सूत्र में बौद्ध मत का ( वह वौद्धों का उद्भाषित मत नहीं भी हो सकता ) श्राभास पाया जाता है किन्दु वह सूचमाष्य का ही दंग था ऐसा जान पड़ता है । भोजराज ने उसे ससूचरूप में स्वीकार नहीं किया । अत्त बौंद्धमत का प्रचार होने के भी पहले पातंजल योगदर्शन रचा गया है ऐसा अघुमान हो सकता है । योगमाष्य समस्त प्रचलित दर्शनों के भाष्यों से अधिक प्राचीन है। पर वह बौद्मत के प्रचार के बाद रच्चा गया | उसकी सरल प्राचीन भाषा--प्राचीनतम बौद्ध ग्रन्थ की भाषा की भाँति भाषा--त्और न्यायादि अन्य दर्शनों के मत का उत्लेख उसकी प्राचीनता को प्रमा- शत करते हैं । वह व्यास जी द्वारा रचित है । श्रवश्य ही ये व्यास जी महाभारतकार कृष्णु- ट्रैपायन व्यास नहीं हैं । बुद्ध के दो या तीन सौ वर्षों के बाद जो व्यास जी थे उन्हीं के द्वारा




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